सकाम और निष्काम सेवा | What is Sakam Karma & Nishkama Karma

Sakam Karma Nishkama Karma

sakam karma nishkam karma in hindi

सकाम और निष्काम सेवा

जिस सेवा के पहले या बाद में मन में थोड़ा भी मान सम्मान पाने की इच्छा न हो वह Nishkama (Karma) सेवा है। इसके अलावा सब सेवाएं Sakam सेवाएं होती है। जो सेवा की जाती है, वह सकाम/Sakam (Karma) सेवा है। जो सेवा होती है, वह निष्काम सेवा है।

निष्काम सेवा पूरी तरह शांत मन व्यक्ति, संत के द्वारा ही होती है। बडे-बडे महात्मा और संतो, तीर्थंकरो ने दुनिया की सेवा की नही उनके द्वारा दुनिया की सेवा हुई है। वे कृतत्व भाव और अहम भाव से मुक्त थे।

करने की वासना से उनका सबंध टुट चुका था। चपल मन लौकिक कामना सहित होता हैं। संभव हैं, किसी में कामना की मात्रा बहुत कम हो फिर भी उसमें कर्ता भाव व अहम भाव होता ही है।

वह अपने को सेवा करने वाला मानता है। सेवा उसकी रूचि का विषय है। भले ही जनता से किसी और फल की आंकाक्षा नही रखता है। फिर भी सेवा करने से उसे संतुष्टि और ख़ुशी का अनुभव होता है। संतुष्टि ख़ुशी स्वयं में सेवा का मधुर फल है और उसका वह उपभोक्ता है। इसलिए उसकी जन सेवा सकाम सेवा है।

शांत मन संत कामना रहित होता है। वह निरपेक्ष कर्ता भाव और अहम भाव से मुक्त होता है। वह अपने को सेवा करने वाला नही मानता सेवा उसकी रूचि या अरूचि का विषय भी नही होता। सेवा के बाद संतुष्टि ख़ुशी या और किसी प्रकार की लौकिक इच्छा की हलचल का अनुभव नही करता । ऐस व्यक्ति की जनसेवा निष्काम होती है।

वैसे तो ऐसा व्यक्ति जन सेवा नहीं करता, उससे जनसेवा होती है। करता नही, होती हैं सेवा करने और होने में बहुत फ़र्क़ है। करने में कृतत्व भाव का अहंकार एंव होने में सहजता है। पेड़ की छांया होती है, लेकिन छाया से जनता को उपक्रत करना पेड़ की इच्छा नही। जनता उसकी छाया का बहुत उपयोग करे तो ख़ुशी नहीं ना करे तो दुख नही।

सूर्य प्रकाशित होता हैं लेकिन जनता को उपक्रत करना उसकी इच्छा नही। फिर भी प्राणी मात्र उससे लाभांवित होता है। यह निष्काम सेवा का ज्वलंत उदाहरण है।

नदी बहती हैं लेकिन किसी के लिए नहीं, बहते रहना उसका जीवन है। आसपास की भूमि सजल बनती है लेकिन उसे सजल बनाने की उसकी इच्छा नही। असंख्या पशु-पक्षी और राही उससे अपनी प्यास बुझाते है लेकिन किसी की प्यास बुझाना उसका ध्येय नही। वह किसी का उपकार नही करती फिर भी उसके द्वारा असीम उपकार होता है। प्रवाहित होना उसका स्वभाव है जीवन है, यह भी निष्काम सेवा का रूप है।

वितरागी संत का जीवन नदी जैसा होता है। वह अपने से न किसी का उपक्रत मानता है न किसी से यार कहता हैं की तुमने मेरा पानी पिया, ना पेड़ यह कहते हैं की तुमने मेरी छाया ली। उनमें प्रशंसा की प्यास नही होती और आलोचना का भय नही होता।

प्रशंसक और आलोचक वह दोनो में समदृष्टि होती है। वह किसी से न सबंध होता है, और न असंबध उसके लिए अच्छा-बुरा कुछ नहीं होता। वह हमेशा साक्षी भाव में रहता है। उसके जीवन से दुनिया की सहजता निष्काम सेवा होती है।

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