हम कैसे धार्मिक हैं – धर्म की आढ़ में अधर्म

Fake Disciples Of God Story

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इस संसार में जितने भी महापुरुष रहे हैं कोई भी प्रशंसा का भूखा नहीं रहा। राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा, गुरूनानक, महावीर आदर के भूखे नहीं थें ,यश की कोई कामना नहीं थी। लेकिन महापुरुषों के पीछे चलने वाले के मन को क्यों गुदगुदी छुटती है ? क्यों ऐसा अच्छा लगता हैं कि कोई प्रशंसा करे ? बात क्या है ? बीमारी अनुयायी के भीतर मालूम होती है।

जब कोई अनुयायी (भक्त) जोर से चिल्लाता हैं बोल महावीर स्वामी की जय, राम की जय, कृष्ण की जय, तो असल में वह महापुरुष की जय नहीं बोल रहा हैं, वह अपनी जय बोल रहा हेै। मनुष्य की सोच रहती हैं कि मेरे भगवान जो हैं वे बहुत बढे भगवान हैं उनकी आढ में मनुष्य स्वयं को बडा मानने लगता हैं, नहीं तो आप ही सोचिये भगवान की जय से उसे क्या प्रयोजन (मतलब) ?

किसी की जय बोलने से किसी की जय सिद्ध होती है क्या ? अपने हृदय से जय हो जानी चाहिए कि मेरा जीवन उन्नत बनें मेरे भीतर वह प्रकट हो जो इनके जीवन में प्रकट हुआ है। जिसको मैं आदर दे रहा हूं जिस फूल की सुगंध की मैं बातें कर रहा हूं, मेरी जिंदगी में भी वह सुगंध हो। तो जय निकलती है। और नही तो थोते जय जयकार से प्रथ्वी पर बहुत शोरगुल मच चुका, उससे कोई परिणाम नहीं निकलता।

जीसस क्रिस्टस को मानने वाले जिसस क्रिस्टस की जय जयकार करते है। राम के मानने वाले राम की जय जयकार करते है, कृष्ण को मानने वाले कृष्ण की, गुरूनाननक को मनने वाले गुरूनानक की जय जयकार करते है। और जय जय कार में एक-दूसरे को हरा दे ऐसी कोशिश करते हैं कि हमारा जय जयकार दूसरे से बडा हो जाये।

हमारे भगवान की शोभायात्रा जुलूस दूसरे से बडा हो भले ही मार्ग का आवागमन बाधित हो जाये, भले ही डाॅक्टर कर्मचारी या मजदूर काम पर देरी से पहूंचे या कोई गंभीर मरीज अस्पताल पहूचंने से पहले ही राह में दम तोड दें ? मित्रों यह धर्म नहीं। धर्म का दिखावा और प्रतिस्पर्धा मात्र है।

जब कोई कहता हैं राम बहुत बडे हैं तो राम को मानने वाला भी बडा हो जाता हैं। वह सोचते हैं, मैं कोई छोटे को मानने वाला नही हूं बहुत बडे को मानने वाला हूं। जब कोई कहता हैं जिसस काइस्ट ईश्वर के पुत्र हैं तो जिसस क्राइस्ट को मानने वाला बडा हो जाता है। जब महावीर की प्रशंसा होती हैं तो महावीर को मानने वाला सिर हिलाने लगता है कि बडी अच्छी बातें कही जा रही है।

पर मित्रों यह अच्छी बातं नही कही जा रही है। बल्कि अपने अहंकार को गुदगुदाये जा रहा है। अपने को मजा आ रहा है, अपन बडे मालूम हो रहे होते हैं, क्योंकि हम इस प्रशंसा में अपना रस, अपने अहंकार की पुष्टि देखना चाहते है। जबकि अहंकार तो धर्म का शत्रु हैं और भगवान महावीर की सपूर्ण साधना अहंकार को मिटा देने की साधना है।

हमारे देखने के ढंग, सोचने के ढंग सकीर्ण है। और संकीर्ण व्रत्ति और और बुद्धि के कारण हमने महापुरुषों के अद्भूत जीवन को एकदम विकृत कर दिया है। इसी संकीर्ण कीर्ति से देखेन पर हर महापुरुष की तस्वीर छोटी हो जाती है। तो आशचर्य नही है। क्या यह कड़वा सत्य नहीं हैं कि जैनी मिलजुलकर महावीर को छोटा करते हैं , ईसाई मिलकर जिसस को छोटा करते हैं, हिन्दू मिलजुलकर राम और कृष्ण को छोटा करते हैं

यह लोग इतने बडे थे कि संपूर्ण विश्व के हो सकते थे। लेकिन उनके अनुयायाीओं ने घेरे बना लिये है। और इस प्रकार उनको छोटा कर दिया है। वे थोडे से लोगों की संपदा हो गये है। और वे इतने जोर से शोरगुल मचाते हैं कि दूसरा आदमी शंकित हो जाता हैं और वह सोचता हैं कि यह इनके भगवान है। यह इनके आदमी है।

हमें क्या लेना-देना ? इस भांति महापुरुष से वंचित हो जाते है। मनुष्यता महावीर से वंचित हो जाती है मनुष्य जाति जो सबकी संपदा होनी चाहिए वे कुछ लोगों की संपदा हो गये, पर! यह अकड उनकी अपनी है। उसका महापुरुषो से क्या लेना-देना ? सभी महापुरुष तो सबके हैं।

जब किसी महापुरुष के पास किसी व्यक्ति को आत्म निंदा अनुभव होती हैं तो उसके जीवन में क्रांति शुरू होती है। जब किसी महापुरुष के सानिघ्य में उनके स्मरण में,उनके चित्र के सामने , उनकी प्रतिमा के सामने अगर हमारा चित्र बिलकुल छोटा दयनीय, दिनहीन दिखाई पडने लगे ऐसा प्रतित हो कि मैं तो कुछ भी नहीं हुूं और मनुष्य इतना बडा भी हो सकता है।

अगर एक मनुष्य की भीतर इतनी महानता घट सकती हैं तो मैं बैठा-बेठा कहां जीवन गंवा रहा हूं। मेरे भीतर भी तो यह महानता घट सकती थी। महावीर बुद्ध राम कृष्ण एक-एक व्यक्ति के भीतर भी तो पैदा हो सकते है। एक बीज वृक्ष बन सकता है। तो हर बीज के लिए चुनौती हो गई की वह वृक्ष बन कर दिखा दे।

और अगर कोई बीज वृक्ष नही बन सकता तो वृक्ष के सामने खडा होकर आत्म ग्लानि का अनुभव करे। अनुभव करें इस बात को कि मैं व्यर्थ भटक रहा हूं। मैं भी वृक्ष हो सकता था। और मेरे नीचे भी हजारों लोगों को छांया मिल सकती थी। मैं भी फलों से लदी हुई छाया का विश्राम स्थल बन सकता था। लेकिन मैं नही बन सका, तिरस्कार हैं मेरा, धिक्कार हैं मेरा जो मैं बन न सका।

क्या राम, कृष्ण, बुद्ध और महावीर ने निकट पहूंचकर अपने को ऐसा लगता हैं कि जो इनके भीतर हो सका वह मेरे भीतर क्यों नही हो पा रहा है ? क्या हमकों आत्मग्लानि अनुभव होती है। अगर होती है। तो महापुरुषों के जीवन से राम, कृष्ण की साधना से महावीर की अंतर चेतना से हमे कुछ किरणें मिल सकती हैं । जो मार्गदर्शक हो जायें लेकिन नहीं। इसकी हमें फुरसत कहां है।

अगर महापुरुषों का जीवन देखें और उनके आसपास अनुयायाी देखें तो ठीक उल्टा दिखेगा। और यह उल्टे अनुयायी उस महापुरुष की उन्हीं बातों की प्रशंसा करेंगे जिन बातों की उनमें कमी है। इसमें महापुरुष का कसुर नही है। इसमें अनुयायी….. रामकृष्ण , महावीर, और बुद्ध की वितराग द्वेष रहित आदर्श की शिक्षा है। उच्च कर्म और बिना स्वार्थ की शिक्षा है।

महावीर की शिक्षा अहिंसा और अपरिग्रह की शिक्षा है। सांसारिक पदार्थो से मोह छोडना है। पदार्थ से उपर उठना हैं लेकिन अनुयायी कितने पे्रमी हो सकते हैं देखककर हैरानी होती हे। इन्होंने महापुरुष के नाम पर धन की तीजोरियां भर ली है। श्रीराम ट्रडिंग कार्पों… श्रीकृष्ण जनरल स्टोर्स, महावीर वस्त्र भंडार, गुरूनानक टेडर्स, etc .

उस महापुरुष के नाम पर जो बार-बार कहते रहे कि धन राख है। धन का मोह छोड दो, धन को कोई मूल्य नही है। आश्चर्य की बात हैं और यही लोग महापुुरुष का गुणगान कर रहे है। मित्रों राम कृष्ण, महावीर बुद्ध नानक , इसा मसीह आदि माहपुरुषों को मात्र जिव्हा में नही जीवन में बसायें। तो जीना सार्थक हो जायेंगा।

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