Journey Of Meditation in Hindi – Learn How To Do Meditation Kaise Kare

Detailed Meditation Kaise Kare in Guide By Yogi

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How to do meditation guide by yogi in Hindi।

पढ़िए ध्यान (मैडिटेशन) कैसे करे, ध्यान साधना के मार्ग में क्या-क्या होता है आदि सब कुछ आपको योगी आनंद जी अपने अनुभव से बताएंगे। इनको पढ़कर आपको ध्यान करने में आसानी होगी, meditation kaise karte hai in Hindi  यह आज के समय में हर कोई जानना चाहता हैं, इसलिए हमने योगी जी की अनुमति से यहाँ पर उनके अनुभव आपके साथ शेयर किये हैं।

ध्यान करने की विधि – सबसे पहले आप अपने घर में या कमरे में साफ-सुथरी जगह चुन लीजिए, जहां बैठकर आपको ध्यान करना है। जहां तक हो सके तो ऐसी जगह चुनिए जो जगह शौर से रहित हो या कम से कम शौर आता हो, ताकि शौर के कारण आपको कोई तकलीफ न हो।

आप एक आसन बना लीजिए जिस पर आप आराम से बैठ सकें। यह आसन कुष का बना हो तो ज्यादा अच्छा होगा। अगर कुष का आसन आपके पास न हो तो आप एक कंबल लीजिए और उसे 2-3 बार मोड़कर बिछा लीजिये।

फिर इसके ऊपर साफ़ सफेद रंग का कपडा बिछा दीजिए। इस आसान का किसी और काम में बिकुल भी उपयोग न करे। इसका उपयोग सिर्फ ध्यान के लिए होना चाहिए। ध्यान के बाद उस आसन को संभालकर सुरक्षित रख दीजिएगा। गंदा आसन को प्रयोग में नहीं लाना चाहिए। आसन बिल्कुल स्वच्छ होना चाहिए।

बिना आसन के फर्श पर नहीं बैठना चाहिए। इसके कुछ वैज्ञानिक नियम भी हैं। हमारी पृथ्वी ऋणात्मक (Negative) चार्ज है और हमारा स्थूल शरीर धनात्मक (Positive) चार्ज है। ध्यानावस्था में शरीर के अंदर से विशेष प्रकार की किरणे निकलती है। वह शरीर से सीधे पृथ्वी में न समाहित हो जायें, इसलिए कुष का आसन या कंबल का आसन होना चाहिए। आसन पर बैठने में सुविधा होती हैं और पृथ्वी और हमारे शरीर के बीच अवरोध का कार्य भी करता है।

यहां आपको ध्यान कैसे करते हैं, ध्यान में कैसे बैठे, ध्यान में किस चीज पर बैठे, ध्यान में क्या होता है, ध्यान में जाने के बाद क्या होता है, और ध्यान की यात्रा कितनी लंबी होती है चक्र क्या होते है आदि।

Guide How to Do Meditation in Hindi Techniques By Yogi

ध्यान करने का समय भी निश्चित होना चाहिए। अभ्यास के शुरुआत में समय का निश्चित होना अनिवार्य सा है। यदि आप समय निश्चित कर लेंगे तो आपकों स्वयं याद आ जायेगा कि यह समय हमारे ध्यान के लिए है। आप अपना काम अवश्य पहले निपटा लेंगे।  वैसे ध्यान के लिए सुबह का समय अति उत्तम है। वातावरण भी शांत होता है और ध्यान भी अच्छा लगता है।

यदि किसी कारण यह समय मेल नहीं करता हैं तो आप अपनी इच्छानुसार समय चुन लीजिए जिस समय आप रोजाना ध्यान पर बैठ सकें। शाम के समय यदि आपके पास समय हो तो थोडा-सा समय निकाल लें। 24 घंटे में दो बार ध्यान में बैठने पर मन थोडा लगने लगता है।

सांयकाल के समय 6 से 8 बजे के बीच का समय अच्छा रहता हैं या फिर अपनी सुविधानुसार समय निकाल लें। रात्रि के 11 बजे से सुबह चार बजे के बीच का समय नए साधक के लिए वर्जित है। इस समय ध्यान नहीं करना चाहिए क्योंकि यह समय तामसिक शक्तियों के भ्रमण का समय रहता है। तामसिक शक्तियों को सात्विक साधक अच्छे नहीं लगते हैं आपस में विरोधाभाव रहता है। किसी कार्य के लिए समय का पाबंद होना जरूरी है।

अब आप मनपसंद अपना देवता चुन लीजिए। जो देवता आपको अच्छा लगता हो, उस देवता का मंत्र याद कर लीजिए, क्योंकि हर देवता का मंत्र अलग-अलग होता है। ध्यान करने के लिए सिर्फ एक ही देवता को चुनना चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि आज इस देवता का स्मरण किया कल दूसरे देवता का।

यदि अलग-अलग देवताओं का स्मरण किया जायेगा तो हमारा मन स्थिर न होकर चंचल बना रहेगा। इसलिए इष्ट एक ही होना चाहिए। सभी देवता मूलतः एक ही हैं सिर्फ उनका स्वरूप अलग-अलग है। इसलिए साधक को किसी देवता की दूसरे देवता से तुलना नहीं करनी चाहिए। देवता सभी समान है।

यदि आप देवताओं को इष्ट नहीं बनाना चाहते हैं तो मन को स्थिर करने के लिए ॐ के चित्र पर मन एकाग्र कर सकते हैं अथवा किसी बिंदु पर मन एकाग्र कर सकते है। या अपनी स्वांस पर ध्यान कर सकते है। क्योंकि मन एकाग्र करने के लिए आधार चाहिए। बिना आधार के मन शीघ्र एकाग्र नहीं होगा।

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इसलिए साधक को मन एकाग्र करने के लिए ध्येय वस्तु का चयन कर लेना चाहिए। ध्यान पर बैठते समय साधक के शरीर पर साफ-सुथरे कपडे होने चाहिए। स्नान करके बैठना जरूरी नहीं हैं फिर भी स्नान करके बैठें तो अच्छा है। हां, हाथ-मूंह, पैर धोकर जरूर बैठना चाहिए।

नये साधक को ध्यान से पहले मनस पूजा करनी चाहिए। मनस पूजा से अंतःकरण पर प्रभाव पडता हैं तथा अंतःकरण शुद्ध होने लगता है। मनस पूजा करने से ध्यान में मन थोडा स्थिर-सा होने लगता है। मनस पूजा इष्ट की मूर्ति अथवा फोटो के सामने करनी चाहिए। आसन पर बैठकर मानस पूजा कीजिए। Guide by Indian yogi on meditation kaise kare

मनस पूजा के समय आपका भाव अपने इष्ट के लिए जितना ज्यादा होगा उतनी ही श्रेष्ठ होगी आपकी मनस पूजा। कुछ भक्तों को तो मनस पूजा करते समय, प्रभु  की याद में आंखों से आंसू आ जाते हैं। भाव-विभोर होकर प्रभु की याद में खो जाते हैं, उन्हें अपनी सुधबुध ही नहीं रहती हैं।

आपका ईष्वर के प्रति जितना ज्यादा समर्पण रहेगा उतनी जल्दी आपका ध्यान लगने लगेगा।

वैसे पतंजलि योग सूत्र में योग के आठ अंग बताये गये हैं। ध्यान सातवीं सीढी हैं। ये आठ अंग हैं- 1. यम, 2. नियम, 3. आसन, 4. प्राणायाम, 5. प्रत्याहार, 6. धारणा, 7. ध्यान, 8. समाधि। इस विषय पर थोडा वर्णन करूंगा। मगर साधक को ध्यान के शुरुआत में आसन व प्राणायाम करना चाहिए। आसन व प्राणायाम पर लेख आगे लिखूंगा। प्राणायाम से मन थोडा स्थिर होने लगता हैं। यदि प्राणायाम उचित मात्रा में किया जाये तो मन की चंचलता थोडी कम हो जायेगी।

मनस पूजा के बाद आप सहजासन अथवा पद्मासन लगाकर बैठ जाइए। अपने दोनों हाथ मिलाकर गोदी में रख लीजिए। बिल्कुल सीधे बैठ जाइए। शरीर को ढीला नहीं रखना चाहिए। पीठ आपकी बिल्कुल सीधी रहनी चाहिए ताकि रीढ की हड्डी सीधी रहे।

ध्यानावस्था में रीढ की हड्डी सीधी रहना बहुत जरुरी होती है। ध्यान से पूर्व आप ग्यारह बार मृत्युंजय मंत्र का जाप करिए। यदि न करना चाहे तों न करें, वैसे इस मंत्र से लाभ मिलता है। इस मंत्र के प्रभाव से शरीर के बाहर चारों और रक्षा कवच बन जाता हैं, तथा साधक के वलय को भी शुद्ध करता है।

कुछ क्षणों बाद अपने इष्ट की मूर्ति या फोटो पर किसी एक जगह केंद्रित करके अपनी दृष्टि उस स्थान पर लगाये रखिए।

इस अवस्था में पलकें बंद नहीं करनी चाहिए। जितनी देर हो सके देखें। इस क्रिया को त्राटक कहते हैं। त्राटक के विषय में आगे लिखूंगा। फिर आंख बंद कर लीजिए। आप अपने मन को भृकुटि में स्थिर करने का प्रयास कीजिए, तथा भृकुटि में अपने इष्ट का काल्पनिक चित्र (स्वरूप) का प्रयास कीजिए।

उसी समय अपने इष्ट मंत्र का जाप मन में कीजिए। यदि आपकी इच्छा भृकुटि पर केंद्रित करने की न हो तो आप हृदय में केंद्रित कर सकते हैं। यदि आप मस्तक (भृकुटि) पर ध्यान केंद्रित करेंगे तो भविष्य में आपके मस्तक में भारीपन महसूस होगा अथवा हल्का-सा सिर भी दुःख सकता हैं क्योंकि वायु का दबाव मस्तक में पडता है तथा नाडियों में खिंचवा होता है।

मगर हृदय में यह सब कुछ नहीं होता है। मगर ज्यादातर योगी मस्तक पर ध्यान करते हैं। मैं भी मस्तक पर ध्यान करता था अब भी मस्तक पर ध्यान करता हूं। मस्तक (भृकुटि) पर ध्यान जल्दी लगने लगता हैं तथा मन का स्थान भी मस्तक पर है।

जब आप अपने इष्ट का काल्पनिक स्वरूप बनाने का प्रयत्न करेंगे, और उसी समय मंत्र का जाप करेंगे तो आपका मन कुछ समय के लिए ठहर जायेगा। मगर दूसरे क्षण मन इधर-उधर भाग जायेगा। उसी समय ध्यानावस्था में आपको अपने स्थूल कार्यों की याद आने लगेगी। मन कभी मित्रों की याद दिलायेगा, कभी कार्यालय की याद आयेगी, तो कभी बाजार की।

हमारे कहने का अर्थ यह हैं मन चंचल हो जायेगा। कुछ समय बाद आपको याद आएगा कि मैं ध्यान पर बैठा हूं। उसी समय आप फिर भृकुटि पर मन को स्थिर करने का प्रयास कीजिएगा। इष्ट का काल्पनिक स्वरूप बनाने का प्रयास कीजिए तथा मंत्र का जाप फिर शुरू कर दीजिएगा।

मगर फिर आपका मन इधर-उधर भाग जायेगा। आपको स्थूल कार्यों की याद दिलाएगा। मगर आप कुछ सोचिए मत फिर मन को पहले की भांति लगा दीजिए। बस, यही होता रहेगा। मन इधर-उधर भागेगा। आप मन को अपने इष्ट के काल्पनिक स्वरूप् में लगाते रहिए।

आप इस क्रिया से घबराना नहीं। मन भागता हैं तो भागने दो। उसे बारम्बार प्रभुचिंतन में लगा दीजिए और अपना मंत्र चालू रखिए। अब आप सोचेंगे कि मन एक जगह स्थिर क्यों नहीं होता ? इस विषय में आप बिल्कुल न सोचें क्योंकि मन साधारण चीज नहीं हैं जो वह तुरंत स्थिर हो जायेगा।

मन तो चंचल हैं उसका कार्य एक जगह ठहरना नहीं है। वह तो बंदर की भांति इधर-उधर उछल-कुद करता रहता है। उसके साथ जबरदस्ती मत करो। जबरदस्ती से वह एक जगह रूकने वाला नही है। उसे प्यार से समझाओं। प्यार से एक जगह ठहरने के लिए प्रेरित करो। उसे समझाओं- अरे भाई, कुछ समय के लिए शांत हो जाओं। कुछ क्षणों के लिए प्रभु का चिंतन कर लो।

यदि आप मन पर क्रोध करेंगे तो मन और अस्थिर होगा। मन इसलिए चंचल होता है। क्योंकि वह सांसारिक पदार्थों के भोग में लिप्त रहा है। उसे सांसारिक वस्तुओं से भोग के कारण राग है। इसलिए वह बहिमुर्खी होकर इधर-उधर भागता रहता हैं।

यह मन चित्त की वृतियों द्वारा बना हुआ है। चित्त का स्वभाव हैं वृत्तियां सदैव उठती रहती है। वह मन का रूप धारण करती है। इसलिए मन शीघ्र नहीं ठहर सकता है। धीरे-धीरे अभ्यास के द्वारा ठहरेगा। तथा प्राणायाम के द्वारा भी मन में ठहराव आता है।

क्योंकि प्राण और मन का काफी गहरा रिश्ता है। इसलिए प्राणायाम द्वारा जब प्राण को अनुशासित करते हैं तो मन भी अनुशासित होने लगता है। त्राटक के द्वारा भी मन स्थिर होता है। इसलिए साधक को त्राटक का भी अभ्यास करना चाहिए।

शुरुआत में ध्यान पर 15-20 मिनट बैठने का अभ्यास कर लेना चाहिए। धीरे-धीरे बैठने का समय अभ्यास के द्वारा बढ जायेगा। इसी तरह प्रतिदिन सुबह 15-20 मिनट ध्यान पर बैठना चाहिए। ध्यान से उठने के बाद अपने आसन को उठाकर सुरक्षित रख दीजिए। उस आसन का  प्रयोग अन्य किसी कार्य में न कीजिएगा

जिस जगह आप ध्यान करते हैं  उस जगह पर अन्य कार्य न करें तो अच्छा है। यदि जगह की कमी हैं तो कोई बात नहीं। जिस जगह पर ध्यान किया जाता हैं उस जगह पर आपके शरीर से निकली किरणें फैल जाती है। यह किरणें अत्यंत शुद्ध होती हैं। जिससे वह जगह पवित्र हो जाती है। उस ध्यान पर अन्य कार्य करने से वह किरणें नहीं रह पायेंगी। शुद्ध किरणें मौंजूद रहने से उस जगह पर आपका ध्यान अच्छा लगेगा।

ध्यान के बाद जब आपको समय मिले तो दिन में दो-तीन बार प्राणायाम करें व समय मिलने पर त्राटक भी करें। त्राटक से आपकी आंखो की ज्योति तेज हो जाती है, तथा मन स्थिर होने लगता हैं। दो-तीन महीने तो मन थोडा कम लगता हैं ध्यान पर बैठने के लिए। लेकिन फिर मन लगने लगता है। साधक की इच्छा होने लगती हैं कि मैं ध्यान पर बैठूं।

कुछ साधकों का मन देर से लगता है। इसलिए साधक को हताषा नहीं होना चाहिए, बल्कि दृढतापूर्वक ध्यान में लगा रहना चाहिए। कुछ साधकों का मन ध्यान में जल्दी लग जाता है। हमने पहले लिखा हैं मन और प्राण का गहरा अटूट रिष्ता है।

यदि ध्यानावस्था में मन स्थिर होगा तो प्राणों का स्पदंन भी धीमा पडने लगता है। अपान वायु का स्वभाव हैं अधोगति। अपान वायु मनुष्य के निचले भाग में कार्य करती है। उसकी गति भी नीचे की ओर है। मन के स्थिर होने से अपान वायु की गति ठहर जाती है तथा अपना व्यावहारिक स्वभाव छोडकर ऊध्र्व होने का प्रयास करने लगती है।

जब मन स्थिर होता हैं तो अन्य प्राण भी अपने कार्य अत्यंत धीमी गति से करने लगते हैं ऐसा समझना चाहिए। मन के थोडा ठहरने से शरीर के अंदर की क्रियाएं ध्यानावस्था में धीमी पडने लगती है।

जब साधक का मन ध्यानावस्था में लगने लगता हैं तो अपान वायु रीढ के सहारे ऊध्र्व होने लगती हैं।

रीढ के बिल्कुल निचले सिर में मूलाधार चक्र है। अपान वायु ऊध्र्व होने पर मूलाधार चक्र में आ जाती है। उस समय साधक को महसूस होता हैं कि हवा का बुलबुला चक्र के नीचे की ओर रीढ की हड्डी की नोंक में (रीढ का बिल्कुल नीचे का सिरा) चढ आया है।

यह क्रिया ध्यानावस्था में महसूस होती है। उस समय उस जगह पर हल्की-सी गर्मी महसूस होती है। साधक को अपान वायु के स्थान पर हल्की-सी गुदगुदी महसूस होती है। गर्मी के कारण उस स्थान पर हल्का-सा पसीना भी कभी-कभी आ जाता है।

इस क्रिया के होने पर साधक में उत्साह सा आ जाता है। साधक की इच्छा होती हैं ध्यान पर बैठा रहूं। उस समय साधक के ध्यान में समय की अपने आप बढोतरी हो जाती है। मैं एक बात और बता दूं यह क्रिया सभी साधकों को महसूस नहीं होती हैं, सिर्फ कुछ साधकों को महसूस होती है।

जिन साधकों को महसूस होती हैं, उनका मन अवश्य प्रसन्न-सा रहने लगता है तथा इच्छा होती हैं कि मैं ध्यान पर बैठूं। अपान वायु का महसूस न होने का यह अर्थ नहीं है कि आपकी अपान वायु ऊध्र्व नहीं हो रही हैं। अपान वायु ऊध्र्व होने पर भी कुछ साधकों को महसूस न होना, यह प्रकृति का स्वभाव है।

मैंने अपने अनुभवों से ज्ञात किया हैं जिस साधक ने पिछले जन्मों में तीव्र योग का अभ्यास किया हैं उनको यह अवश्य महसूस होती है। तथां शरीर शुद्ध होने पर भी यह क्रिया महसूस होती है। इसलिए साधक इस खींचा-तान में न पडे कि हमें यह क्रिया क्यों नहीं महसूस होती है। बस, ध्यान करते रहिए सफलता अवश्य मिलेगी।

मनुष्य के शरीर में सात मुख्य चक्र होते हैं। ये चक्र स्नायुमंडल व सूक्ष्म नाडियों के द्वारा बने होते हैं। ये स्नायुमंडल दिव्यशक्तियों से युक्त हैं, मगर सुधूपत अवस्था में रहते हैं। योग के अभ्यास के द्वारा इन सुषुप्त शक्तियों को जाग्रत करते हैं।

सबसे नीचे स्थित पहले चक्र का नाम मूलाधार चक्र है। यह रीढ की हड्डी के नुकीले सिर से थोडा ऊपर गुदा द्वार के निकट स्थित होता है। साधक की अपान वायु मूलाधार चक्र में चढती हैं तो  उसे कोई खास अनुभव नहीं होता है, सिर्फ प्राणवायु की अनुभूति होती है।

साधक का साधना के प्रति खिंचवा-सा हा जाता है। नित्य अभ्यास के द्वारा कुछ दिनों बाद मूलाधार चक्र खुल जाता है। हर चक्र में कमल का फुल होता है। सुषुप्तावस्था में यह फूल कली के समान बंद रहता है। जब यह कली खिलकर फूल बन जाती हें तो बंद पंखुडियां खुलकर फूल का रूप धारण कर लेती है।

इसे चक्र का खुलना कहते हैं, इस चक्र के कमल में चार पंखुडी होती है। यह सब कुछ सूक्ष्म रूप में स्थित है। कभी-कभी साधक को यह फूल दिखायी देता है। कभी-कभी किसी साधक को यह फूल दिखायी नहीं देता है। इस चक्र के देवता गणेश जी हैं।

ध्यान का अभ्यास ज्यादा बढने पर प्राणवायु ऊपर की ओर बढने लगती है। मूलाधार चक्र से दो अंगुल ऊपर रीढ में स्वाधिष्ठान चक्र होता है। स्वाधिष्ठान चक्र जननेन्द्रिय के पीछे रीढ में होता है। इस चक्र से जनेनन्द्रिय प्रभावित होती है।

जब प्राणवायु उर्ध्व होकर स्वाधिष्ठान पर आती हैं तो लगता हैं रीढ के सहारे हवा का बुलबुला ऊपर की ओर चढ रहा है तथा हल्की-सी गुदगुदी, गर्मी एंव मीठा-सा दर्द महसूस हो सकता है। स्वाधिष्ठान चक्र पर प्राण जब आता हैं तो कुछ दिनों तक इसी चक्र में प्राण ठहरता है।

जब यह चक्र खुल जाता हैं तो इस चक्र का कमल खिल जाता है। इस चक्र के कमल में 6 पंखुडी होती है। सभी पंखुडियां खुल जाती है। फिर प्राणवायु ऊपर जाने का प्रयास करती है। इस चक्र के देवता ब्रह्मा जी हैं।  जब स्वाधिष्ठान चक्र खुल जाता हैं तो प्राण उर्ध्व होकर रीढ के सहारे ऊपर चढता है।

स्वाधिष्ठान से चार अंगुल ऊपर नाभि चक्र है। नाभि चक्र नाभि के पीछे है। इस चक्र से नाभि के आसपास का क्षेत्र प्रभावित रहता है। इसी चक्र को मणिपुर चक्र भी कहते हैं। जब प्राण नाभि चक्र में आता हैं तो यहां पर साधकों को ध्यानावस्था में अनुभव आने शुरू हो जाते हैं।

नाभि में जठराग्नि रहती हैं, यह जठराग्नि ध्यान के माध्यम से ज्यादा तेज हो जाती है। इसी से शरीर गर्म रहता हैं तथा भोजन पचाने का कार्य यही जठराग्नि करती है। नाभि चक्र में दस दल का कमल होता हैं। नाभि चक्र में कभी भगवान विष्णु के दर्शन होते हैं, क्योंकि नाभि चक्र के देवता भगवान विष्णु है।

कभी-कभी साधक को ध्यानावस्था में अनुभव होता हैं कि में अंधकार में आगे बढता चला जा रहा हूं। आगे काफी दूरी पर आग जल रही है। आग की लपटें आसमान छू रही है। यह नजरिया  देखकर साधक को डरना नही चाहिए क्योंकि यह स्वयं आपकी जठराग्नि दिखायी देती है।

अथवा कभी-कभी अनुभव हो सकता हैं मैं अंधकार में आगे चला जा रहा हूं। इसी प्रकार के अनुभव होते हैं जब यह चक्र खुल जाता हैं तो इस चक्र में स्थित कमल की दसों पंखुडी खुलकर फुल का रूप धारण कर लेती है। फिर प्राणवायु उर्ध्व होकर हृदर की ओर जाने लगती है।

जब प्राणवायु हृदय चक्र मे आती हैं तब साधक को अति प्रसन्नता होती है। हृदय चक्र में 12 दल का कमल है तथा इस चक्र के देवता भगवान रूद्र हैं। इस चक्र में साधक की प्रसन्नता का कारण यह है। इस चक्र में अनुभव बहुत आते हैं।

अनुभव इतने अच्छे होते हैं कि साधक सोचता हैं मैं कब ध्यान में बैठूं और अनुभव आये। इस चक्र में अनुभवों की बडी भरमार होती है। साधक ख़ुशी से झुमने लगता है, क्योंकि उसके इष्ट के यहीं पर दर्शन होते हैं।

किसी-किसी साधक को इतने अनुभव आते हैं कि उसके ध्यान का समय अनुभवों में ही बीतता है। किसी साधक को कम अनुभव होते हैं। मैंने यह अनुभव किया कि किसी साधक को अनुभव नहीं होते हैं, मगर मन प्रसन्न रहता है।

यदि किसी साधक को अनुभव नहीं आते तो वह दुःखी न हो। अनुभव आने का अर्थ यह नहीं कि सिर्फ अनुभव वालों का ही ध्यान लगता है। अनुभव आाने वाले का भी ध्यान लगता है। फिर भी यदि मन में किसी प्रकार की शंका हो तो आप अपने गुरूदेव से जानकारी हासिल कर लें।

अथवा किसी योग्य साधक या योगी से भी शंका का समाधान कर सकते हैं। यहां पर अनुभव कुछ इस प्रकार के आते हैं- आसमान स्वच्छ है। चारों और स्वच्छ चांदनी की तरह प्रकाश फैंला हुआ है। आप उसी प्रकाष में घूम रहे हैं।

हरा-भरा जंगल है। बर्फीले पहाड हैं, पहाडों पर आप घूम रहे हैं। पहाडों पर ऊंचे पेड हैं, हवा बहुत तेज चल रही है, स्वच्छ, सुंदर तालाब है, तालाब में कमल खिले हैं। चारों ओर हरियाली है। उसी में पगडंडी है, आप पगडंडी पर जा रहे हैं।

सुंदर पक्षियों के चहचहाने की आवाज आ रही है। मोर नाच रहा है। आपके इष्ट के भी दर्शन होंगे आदि कईं प्रकार के सुन्दर-सुन्दर अनुभव होते है। इस स्थान पर आपकों अपने गुरू के भी दर्शन होते हैं।

बहुत ज्यादा अनुभव होना कोई अच्छी बात नहीं है। क्योंकि यह अनुभव सारा वृत्तियों का खेल है।

हृदय में विशाल जगह है। यहां वायु भी होती हैं काफी मात्रा में। यहीं पर चित्त में वृत्तियां उठती हैं। उन्हीं वृत्तियों के कारण अनुभव आते हैं। यहां पर जो चांदनी के समान प्रकाश दिखायी पडता हैं, वह सात्विक वृत्ति के कारण प्रकाश होता है।

यहीं हृदय में नाद उत्पन्न होता हैं जो किसी-किसी साधक को सुनायी पडता है। काफी समय तक साधक इस चक्र में आनंद अनुभूति महसूस करता है। मगर जब प्राण इस चक्र से ऊपर ऊध्र्व होने लगता हैं तो अनुभव समाप्त हो जाते हैं। साधक की पहली वाली प्रसन्नता गायब हो जाती है। हृदय चक्र से प्राण ऊध्र्व होकर ऊपर की ओर जाने लगता है। हृदय के ऊपर कण्ठचक्र है।

कण्ठचक्र गले में पीछे की ओर होता हैं। यह चक्र गले के क्षेत्र में होता है। इसीलिए इस चक्र को कण्ठचक्र कहते हैं। कण्ठचक्र में 16 दल का कमल है। यहां पर जीव का स्थान है। इस चक्र को विंषुद्ध चक्र भी कहते हैं।

अभी तक साधक को जो मजा आता था अथवा आनन्द आता था, वह यहां पर सब समाप्त हो जाता है। क्योंकि कण्ठचक्र में अनुभव बिल्कुल नहीं होते हैं। यहां पर घोर अंधकार दिखायी पडता है। प्राण यहां तक रीढ के सहारे बडे आराम से आ गया है। प्राण को कण्ठचक्र तक आने में ज्यादा समय नहीं लगता है।

मगर कण्ठचक्र में प्राण को ऊपर जाने का मार्ग नहीं मिलता है। क्योंकि कण्ठचक्र में आगे का मार्ग बंद रहता है। प्राण को आगे जाने का रास्ता नहीं मिलता है। प्राण ऊपर उठने की कोशिश करता है। आगे का मार्ग बंद होने के कारण अवरूद्ध रहता है।

इसलिए प्राण के दबाव के कारण गर्दन पीछे की ओर झुकती हैं। यदि साधक की साधना तीव्र हैं तो सिर पीछे की ओर और पीछ से चिपकने लगता है। इस क्रिया से साधक को बडी परेशानी होती है। ऊपर से मन के अंदर निराश-सी होने लगती है, क्योंकि गर्दन पीछे की ओर जाने के कारण दुःखेन लगती है, प्राण भी कण्ठ में रूका हुआ होता है।

तथा साधक को किसी प्रकार के अनुभव नहीं आते हैं। साधक सोचता हैं हम कहां आ गये। कुछ सुझता ही नहीं है। साधक के लिए यही समय परीक्षा का होता है। जो अच्छे साधक होते हैं वह अपने लक्ष्य को पाने के लिए नियम संयम से कठोर साधना में लगे रहते हैं। जो साधक अपने लक्ष्य के लिए उत्साही नहीं होते हैं वह हताश होने लगते हैं।

साधकों को कण्ठचक्र मे कई वर्षों तक साधना करनी पडती है। कुछ साधक यहीं पर अपनी साधना छोड देते हैं। क्योंकि वह निराश हो जाते हैं। वास्तव में यह जगह हैं ही ऐसी यहां किसी भी साधक को जल्दी सफलता नहीं मिलती है।

जब साधक की साधना अच्छी होती है तो गर्दन पीछे की ओर झुकती है। उसी समय कण्ठ से ऊॅंऽऽऽऽ, ऊॅंऽऽऽऽ, ऊॅंऽऽऽऽ की आवाज निकलती है। ऐसा लगता है जैसे भंवरा जोर से शौर मचा रहा है। भंवरे के गुंजन की तरह आवाज आती है।

साधक को यहां से पार होने के लिए कठोर नियम-संयम करना पडता है। शुद्ध सात्विक भोजन व प्राणायाम पर विशेष ध्यान देना पडता है। कठोर साधना करनी पडती है। तब काफी बाद थोडी सी सफलता मिलती है।

इसी चक्र के पास नदियों की ग्रंथि है। यही ग्रंथि प्राण का मार्ग अवरूद्ध किये रहती है। जब कठोर साधना के द्वारा नाडियां थोडी शुद्ध होती हैं, तब यह ग्रंथि थोडी-थोडी खुलती है। जब ग्रंथि के ज्यादा खुलने से नदियां अलग-अलग हो जाती हैं तो थोडा-सा मार्ग प्रशस्त हो जाता है।

यहीं पर जीव, माया, अविद्या आदि का स्थान है। इसी कारण साधक आगे नहीं बढ पाता है। कभी-कभी साधक को कण्ठचक्र में अनुभव आ जाते हैं। साधक ध्यानावस्था में देखता हैं- मैं एक सुरंग के अंदर तीव्र गति से घुसता चला जा रहा हूं। सुरंग में पीले रंग का प्रकाश है।

यह सुरंग समाप्त नहीं हो रही है। उसी समय अनुभव समाप्त हो जाता है। कभी देखता हैं- मैं सुरंग के अंदर तीव्र गति से जा रहा हूं आगे वह सुरंग बंद है। उसी समय अनुभव समाप्त हो जाता है। कभी देखता हैं- मैं सुरंग के अंदर तीव्र गति से जा रहा हूं आगे वह सुरंग बंद है।

उसी स्थान पर साधक खडा हो जाता है और अनुभव समाप्त हो जाता है। इस सुरंग को ही भ्रमर गुफा कहते है। यह कण्ठचक्र का दृष्य है। जिस स्थान पर सुरंग बंद दिखायी पडती है। यह बंद वाला स्थान ग्रंथि के कारण है।

जब तक ग्रंथि खुलकर आगे का मार्ग प्रशस्त नहीं करेगी तब तक प्राण यहीं पर रूका रहेगा। इसी स्थान पर दूर-दर्शन, दूर-श्रवण सिद्धि मिलती है। साधक इन सिद्धियों के द्वारा दूर के दृश्य देख सकता है। और उसी स्थान की आवाज भी सुन सकता है। दूरी के लिए प्रतिबंध नहीं है। पृथ्वी के किसी भी स्थान का दृश्य देख सकता हैं व आवाज सुन सकता है।

दूसरे किसी भी व्यक्ति की गुप्त बात सुनी जा सकती है। इन सिद्धियों को कार्य करने में समय बिल्कुल नहीं लगता है। पलक झपकाते ही ये सिद्धियां कार्य करना शुरू कर देती है। ऐसा लगता हैं कि घर बैठे टी।वी। देख रहे हैं।

ये सिद्धियां अधिकतर साधकों को कभी न कभी अवश्य मिलती है। मगर कार्य करने की क्षमता में फर्क रहता है। ये सिद्धियां साधना के अनुसार ही कार्य करती है। यदि साधक की साधना अति तीव्र हैं तो यह सिद्धियां भी अति तीव्रता से कार्य करती है।

यदि साधक की साधना धीमी हैं, तो सिद्धियां कम कार्य करती है। साधक को इन सिद्धियों के चक्कर में नहीं पडना चाहिए। सिद्धियां योग मार्ग की अवरोधक है। जो साधक इन सिद्धियों के चक्कर में पड जाता है उसका योग यहीं पर रूक जाता है।

सिद्धियां सदैव कार्य नहीं करती। सिद्धियां सदैव योगबल पर ही कार्य करती है। योगबल कम पडने पर या समाप्त होने पर सिद्धियां कार्य करना बंद कर देती हैं। तब साधक को पछतावा होता है। साथ ही कण्ठचक्र में वाचा सिद्धि भी मिलती है। यह सिद्धि साधक की शुद्धता व योगबल पर कार्य करती है।

इस सिद्धि के लिए शुद्धता अति आवष्यक है। यदि साधक को यह सिद्धि मिल जाये तो मौन रहने की आदत डालनी चाहिए। ज्यादा बेकार की बात नहीं करनी चाहिए। यह सिद्धि हर साधक में एक जैसा कार्य नहीं करती है।

साधक की साधना अनुसार यह सिद्धि कार्य करती है। इस अवस्था में साधक अपनी योग्यतानुसार अतृप्त जीवात्माओं से सम्बन्ध कर सकता है। उनसे बात कर सकता है। जीवात्मा के विषय में जानकारी हासिल कर सकता है। यदि साधक की साधना तीव्र हैं तो अतृप्त जीवात्माओं को तृप्त कर सकता है। चाहे तो मुक्त भी कर सकता है। मगर सब बातें साधक की साधना में अवरोध डालने की है, इसलिए इनसे सर्वथा दूर रहें।

ज्यादातर साधक की कुण्डलिनी यहीं पर जाग्रत हो जाती है। यह कुण्डलिनी गुरू अथवा मार्गदर्शक द्वारा उर्ध्व कर दी जाती है। कुण्डलिनी जाग्रत होने से साधक के अंदर सत्वगुण की अधिकता बढने लगती है, तथा साधना भी तीव्रता से होने लगती है।

इसके जाग्रत होने से साधक के अंदर मनोबल बढने लगता है। ध्यान के लिए उत्साह ज्यादा बढने लगता है। मगर ध्यानावस्था में गर्दन पीछे जाने के कारण उसे कष्ट भी महसूस होता है। कष्ट के बावजूद उसके अंदर साधना करने की तीव्र लगन होती है।

इस प्रकार का कष्ट वह सहने के लिए तैयार रहता है। कभी-कभी साधक ध्यानावस्था में पीछे की ओर गिर जाता है। यह क्रिया तभी होती हैं जब साधना अति तीव्र होती हैं। मगर कुछ साधकों को देखा गया हैं कि उनकी गर्दन ज्यादा पीछे नहीं जाती है। गर्दन थोडी-सी पीछे की ओर जाती है। ऐसे साधक यह न समझ लें कि हमारी साधना नहीं हो रही है। ऐसे साधकों का स्वभाव सौम्य होता हैं ऐसा देखा गया है।

इसी स्थान पर साधक को बाह्म शारीरिक क्रियाएं होती है। कुछ साधकों को बहुत ज्यादा क्रियाएं होती हैं। कुछ साधकों को बाह्म क्रियाएं नहीं होती हैं। इन क्रियाओं का कारण प्राणवायु है। साधक के शरीर के अंदर की नाडियां अशुद्ध होने के कारण अवरूद्ध होती हैं।

प्राण इन्हीं नदियों में रूका होता है। जब ध्यानावस्था में प्राण का दबाव नाडियों पर पडता हैं तो साधक को ध्यानावस्था में बाह्म क्रियाएं होने लगती है। इन क्रियाओं को साधक ध्यानावस्था में रोक नहीं सकता है। साधक को इन बाह्म क्रियाओं का धीरे-धीरे अभ्यास होता रहता है। यह क्रियाएं साधक के ध्यान में अवरोध होती है।

क्रियाओं के समय मन चंचल हो जाता है। साधक मन को स्थिर करने का प्रयास करता है। इन क्रियाओं को बंद करने के लिए साधक को ज्यादा से ज्यादा प्राणायाम करना चाहिए, तथा शुद्ध रहना चाहिए। ज्यादा प्राणायाम से नाडी शुद्ध हो जाती है।

नाडी शुद्ध होने पर प्राण का अवरोध दूर हो जाता है। फिर यदि क्रियाएं बंद नहीं होती है तो मार्गदर्शक या गुरू से क्रियाएं बंद करवा लें, ताकि साधक स्थिर होकर बैठ सकें। गुरू या मार्गदर्शक का कर्तव्य हैं कि अपने शिष्य कि क्रियाएं शक्तिपात कर पूर्णतया बंद कर दें ताकि साधक योग में आगे बढ सकें।

साधक को मुद्राएं भी होती है। क्रियाएं और मुद्राओं में फर्क होता है। वैसे मुद्राएं भी प्राण की गति के कारण होती हैं। मुद्राएं होना साधक के लिए बुरा नहीं है। मुद्राएं साधक की योग्यता दर्शाती हैं। मुद्राओं से साधना में अवरोध नहीं आता हें।

साधक को साधना काल में कई मुद्राएं हो सकती हैं। हर मुद्रा का कुछ न कुछ अर्थ अवश्य होता है। जब कण्ठचक्र में स्थित ग्रंथि थोडी खुलने लगती हैं तो ऊपर के लिए मार्ग थोडा सा खुल जाता है। कण्ठचक्र में रूका हुआ प्राण थोडी मात्रा में भृकुटी पर आ जाता है।

कण्ठचक्र में रूका हुआ प्राण पूरी तरह से ऊपर नहीं आता है। ऐसा इसलिए होता हैं क्योंकि ग्रंथि पूरी तरह से नहीं खुली होने के कारण प्राण की ग्रंथि अवरूद्ध किये रहती है। प्राण जब थोडा सा ऊपर जाता हैं तो अनुभव आने शुरू हो जाते हैं।

यहां के अनुभव पहले से उच्चकोटि के होते है। यदि साधक की कुण्डलिनी उर्ध्व होने लगती हैं तो कण्ठचक्र इस अवस्था में शीघ्र खुल जाता है। फिर भी साधक की कुण्डलिनी उर्ध्व होने के 2-3 साल बाद कण्ठचक्र पूर्ण रूप से खुल पाता है।

कण्ठचक्र पूर्ण रूप से खुलने का समय निश्चित नहीं है। साधक की साधना पर निर्भर करता है। इस ग्रंथि को खुलने में कुण्डलिनी सहायता देती है। ग्रंथि खुलते समय गर्दन बुरी तरहस से दुखने लगती है। ग्रथि खुलने के बाद दर्द बिल्कुल महसूस नहीं होता है। ग्रंथि खुलने पर प्राण पूरी तरह से ऊपर चला जाता है।

कण्ठचक्र खुलना साधक के लिए साधना में बहुत बडी उपलब्धि है, क्योंकि यह ऐसी जगह हैं जहां पर साधक अपना धैर्य खो बैठता है। साधक सोचता हैं उसे कई वर्ष हो गये, न जाने कब यह कण्ठचक्र खुलेगा।

मगर सच्चा साधक प्रयासरत रहकर सफलता पा ही लेता है। यदि साधक की साधना पिछले जन्म में की हैं तो उसे जल्दी सफलता मिल जाती है। पिछले जन्म में की साधना वर्तमान जन्म में सहायक होती है। जिस साधक ने योग के अभ्यास के द्वारा अपना कण्ठचक्र खोल लिया हैं, उसका अगला जन्म मनुष्य का ही होगा, ऐसा निश्चित है।

ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि यह चक्र खुल गया हैं, अब साधना बंद कर देनी चािहए, अगला जन्म तो मनुष्य का मिलेगा। साधक को बराबर साधनारत रहना चाहिए। इसका अर्थ यह भी नहीं जो योग नहीं करते हैं, वह अगले जन्म में मनुष्य नहीं बनेंगे।

ऐसे लोगों का कर्म निश्चित करता हैं कि उसे किस योनि में जाना है। मनुष्य जैसा कर्म करता हैं उसी के अनुसार सूक्ष्म शरीर अन्य भोग योनियों में जाकर अपना कर्म भोगता है। मगर कण्ठचक्र पार करने वाला साधक अन्य योनियों में न जाकर कुछ समय बाद जल्दी ही मनुष्य शरीर धारण करता है।

और यह भी निश्चित हैं वह अगले जन्म में साधना करेगा। हां, यह निश्चित नहीं हैं कि वह किस उम्र में योग करना शुरू करेगा। साधना को शुरू करना कर्म पर आधारित रहेगा। ऐसा साधक परिस्थितियां प्रतिकूल होने पर भी साधना करना शुरू कर देगा। उस समय साधना के लिए परिस्थितियां स्वमेव अनुकूल हो जाएंगी।

अब आता हैं आज्ञाचक्रं। यह चक्र दोनों भोवों की बीच भृकुटी में होता है। यहां पर दो दल का कमल है। यहां के देवता भगवान शिव है और गुरू का भी यहीं पर स्थान है। कण्ठचक्र से प्राणवायु दो भागों में बंट जाती है। प्राणवायु का एक भाग भृकुटी की ओर जाता है। दूसरा भाग गर्दन से ऊपर से सिर के पिछले भाग में लघु-मस्तिष्क पर आ जाता है।

लघु-मस्तिष्क वाले मार्ग को पष्चिम मार्ग कहते हैं। जो प्राणवायु कण्ठचक्र से आज्ञाचक्र पर सीधे आ जाती है उसे पूर्व मार्ग कहते हैं। पहले पूर्व मार्ग के विषय में लिखूं। जब साधक का प्राण मस्तक पर आता हैं तो उसे लगता हैं मस्तक पर ढेर सारी प्राणवायु भर गयी है।

साथ ही मस्तक पर गुदगुदी व खुजली-सी होती है। साधक को ध्यानावस्था में यह जगह बहुत अच्छी लगती है। उसे लगता हैं मैं बहुत ऊपर आ गया हूं। दूर-दूर तक हरा-भरा मैदान दिखायी पडता है। यदि साधक के इष्ट भगवान शंकर हैं, तो इस स्थान पर अवश्य दर्शन होंगे। यहां पर साधक को शिवलिंग भी दिखायी पडता है।

जब साधक की साधना आज्ञाचक्र पर होती हैं तो उसका सिर दुखने-सा लगता है। दुखने का कारण यह हैं कि सिर में वायु भर जाती है। नाडियों में वायु का दबाव बढ जाता है। नाडियां अशुद्ध होने के कारण बंद रहती है।। उस स्थान पर प्राणवायु दबाव देता है। जिससे दर्द-सा महसूस होता है।

ध्यान के बाद वायु ऊपर से पूरी तरह नीचे नहीं आ पाती है। वायु रूकने के कारण सिर भारी-सा हो जाता है, अथवा दुखने लगता है। इस अवस्था में साधक को ज्यादा-से-ज्यादा प्राणायाम करना चाहिए ताकि नाड़ियां शुद्ध होने लगें।

शुद्ध होने से सिर का दुखना कम हो जायेगा अथवा समाप्त हो जायेगा। यदि साधक की साधना तीव्र हैं तो साधक को शौच के लिए थोडी परेशानी होने लगती हैं क्योंकि शरीर में गर्मी बहुत बढ जाती हैं उससे बचने के लिए ज्यादा-से-ज्यादा पानी सुबह को पीना चाहिए। इससे शौच में आराम मिलेगा।

साधक ने अभी तक जो साधना की थी उसमें उसे अभी तक अपने साधना के बारे में ज्यादा ज्ञान नहीं हुआ होता है। मगर आज्ञाचक्र पर आने पर यह जानने का प्रयास करने लगता हैं कि मैं कौन हूं, कहां से आया हूं, अब कहां जाऊंगा। प्रकृति के बारे में ज्ञान होने लगता है। उस समय उसे संसार की असलियत का पता लगने लगता है। संसार क्या हैं, यह उसकी समझ में आने लगता है, और इस संसार से छुटकारा पाने की कोशिश करने लगता है।

यदि साधक किसी वस्तु की खोज करना चाहे तो उसे उस वस्तु के विषय में ढेर सारी जानकारीयां हासिल हो जाती हैं। साधक सूक्ष्म वस्तुओं को भली-भांति समझ सकता है। भूतकाल और भविष्यकाल की घटनाएं उसे भली-भांति दिखायी पडने लगती हैं। साधक की शक्ति की क्षमता बहुत अधिक हो जाती है।

जिस कार्य में हाथ डालता हैं उसे उस कार्य में सफलताएं ही सफलताएं मिलती हैं। तब साधक को समझ में आता हैं योग का महत्व क्या है। साधना करके उसने कोई गलती नहीं की। उस समय गुरू के महत्व को भी समझ जाता है कि हमारे गुरू ने हमें क्या दिया।

हमारे गुरू ने क्या से क्या बना दिया। उस समय साधक अपने आपको गुरू का ऋणी समझने लगता है। यदि गुरू मार्गदर्शक न बनते तो इस संसार में भटकते रहते।

अब साधक का मनोबल बहुत बढ जाता हैं। वह निडर होकर रहने लगता है। यहां तक कि मृत्यु की उसे नहीं डरा पाती है। साधक के विचारों में परिवर्तन आने लगता है। उसके अंदर सेवा और प्रेम की भावना जाग्रत हो जाती है। हर जीव, हर वस्तु से प्रेम करने लगता है।

सारा संसार एक ब्रह्ममय हैं, यह समझ में आने लगता है। साधक में आलस्य नहीं रहता है। वह अपने शरीर में चेतनता ही चेतनता महसूस करता है। ध्यान में बैठने की अवधि बहुत बढ जाती हैं। एक बार में डेढ घंटे से साढे तीन घंटे तक आराम से बैठा रहता है।

इतना समय कब बीत गया यह मालूम नहीं होता हैं, क्योंकि सविकल्प समाधि लगती है। साधक का शरीर दुबला-पतला हो जाता है। मगर शरीर के अंदर की शक्ति कम नहीं होती है। क्योंकि शरीर की शक्ति को कुण्डलिनी बढाये रखती है।

भूमध्य में एक गांठ होती है। प्राण इसी गांठ में फंसने लगता है। जब तक यह गांठ खुलती नहीं हैं तब तक मस्तिष्क दुखता रहता है। आज्ञाचक्र खोलने के लिए ज्यादा-से-ज्यादा मंत्रजाप करना चाहिए। मंत्रजाप मन के अंदर नहीं होना चाहिए बल्कि मंत्र की ध्वनि निकलनी चाहियें।

मंत्र बोलने का तरीका सही होना चाहिए, यह महत्वपूर्ण बात है। मंत्र जाप स्वयं अपने आप में एक योग है। मंत्र की शक्ति बडी विषाल है। साधनाकाल में जितना ज्यादा मंत्र जाप किया जाये उतना ही अच्छा है।

अब लघु मस्तिष्क की और आये कण्ठचक्र से प्राणवायु उर्ध्व होकर लघुमस्तिष्क की ओर आती है।

लघु-मस्तिष्क का स्वरूप लुचलुचे मांस द्वारा निर्मित है। साधक की उत्कृष्ट साधना होने पर लघुमस्तिष्क साफ दिखायी पडता है। उसके अंदर कोई छिद्र नहीं होता। मगर योग में लघु-मस्तिष्क के अंदर से होकर पश्चिम मार्ग आता है।

प्राण लघु-मस्तिष्क में आकर रूक जाता है। उसी समय साधक को जालंधर बंध, उड्डियान बध व मूलबंध लगते हैं। इन तीनों बंधो के विषय में आगे लिखूंगा। कण्ठचक्र खुलने के बाद प्राण तो ऊपर हो जाता है, परन्तु कुण्डलिनी अपने मूंह से धक्के मार-मार कर उस छिद्र को छोड़ा कर देती है और वहां का मांस जला डालती है।

कण्ठ से ऊपर पहूंच कर उसका मार्ग सीधे ऊपर जाता है। यह सीधा मार्ग ब्रह्मरंध्र द्वार पर पहुंचता है। इस मार्ग पर सिर्फ कुण्डलिनी ही जाती है। इस मार्ग को सीधा मार्ग कहते हैं। कण्ठचक्र से ठीक ऊपर 90 डिग्री अंश का कोण बनाता हुआ मार्ग है।

मगर कुण्डलिनी पष्चिम मार्ग व पूर्व मार्ग पर क्रमषः चढती और वापस आती है। इस प्रकार कुण्डलिनी तीनों मार्गों पर बारी-बारी (क्रमषः) से जाती है। पूर्व मार्ग तो भृकुटी तक खुला होता हैं, मगर पष्चिम मार्ग पूरी तरह से बंद रहता है।

अब कुण्डलिनी पष्चिम मार्ग को खोलने में लग जाती है। पष्चिम मार्ग पर धक्के मार-मार कर लघु-मस्तिष्क के अंदर से मार्ग बनाती है। लघु-मस्तिष्क से मार्ग बनाते समय साधक को थोडी पीडा होती है। उसे महसूस होता हैं लघुमस्तिष्क के अंदर गर्म सुआ की (सूजा) तरह कोई चीज चुभ रही है।

कुछ दिनों पष्चात लघु-मस्तिष्क से अपना मार्ग बना लेती है। लघुमस्तिष्क से पृथ्वीतत्व को जला डालती है और चेतन्यता भर देती है। लघु-मस्तिष्क से होकर पष्चिम मार्ग गोलाई में ऊपर चढता हुआ ब्रह्मरंध्र द्वार पर आता हैं कुण्डलिनी भी इसी मार्ग से होकर ब्रह्मरंध्र द्वार तक आती हैं, फिर सीधा मार्ग पूरी तरह से खुलने पर कुण्डलिनी सीधे मार्ग से ब्रह्मरंध्र द्वार पर आती है।

पूर्व मार्ग से होते हुए कुण्डलिनी आज्ञाचक्र पर आती हैं। आज्ञाचक्र पर जब कुण्डलिनी आती हैं तो आंखों में जलन होने लगती हैं, जलन कुण्डलिनी की उष्णता के कारण होती है। इस चक्र में स्थित गांठ को वह बुरी तरह से नोंचकर खोल डालती है। यहीं पर आज्ञाचक्र के पीछे की ओर तीसरा नेत्र होता है। इसे दिव्यदृष्टि कहते हैं। वह भी खुल जाती है। जब कुछ समय बाद आज्ञाचक्र खुल जाता है तो यहां का रूका हुआ प्राण ब्रह्मरंध्र द्वार की ओर चला जाता है।

मैं यह बता दूं कि तीनों मार्ग (पूर्व मार्ग, सीधा मार्ग, पष्चिम मार्ग) एक साथ ही लगभग खुलते हैं। कुण्डलिनी हमेशा तीनों मार्गों कों एक साथ क्रमषः खोलती रहती है। पष्चिम मार्ग देर से खुलता हैं। अब दो भागों को बंटा हुआ प्राणवायु ब्रह्मरंध्र द्वार पर एक हो जाते है। आधा प्राणवायु पष्चिम मार्ग से आकर (सिर के पीछे से होकर) ब्रह्मरंध्र द्वार पर आ जाता है।

आधा प्राणवायु पूर्व मार्ग से होकर आज्ञाचक्र होते हुए ब्रह्मरंध्र द्वार पर आ जाता है। यदि पूर्व मार्ग और पष्चिम को ध्यान से देखा जाये तो लगता हैं कि पूल के आकार में ये मार्ग है। ऐसा लगता हैं दो मित्र पूल के दोनों ओर से चलकर बीच में मिल गये हों।

जिस जगह मिलते हैं उसके ऊपर ब्रह्मरंध्र का द्वार है। अब कुण्डलिनी सीधे मार्ग से होकर ब्रह्मरंध्र द्वार पर पहुंचती हैं।

अब आज्ञाचक्र खुलने वाला होता है तो साधक की आंखों पर दबाव पडता है। जब कुण्डलिनी पूर्व मार्ग से आंखों पर आ जाती हैं तो आखों में बडी तेज गर्मी बढती है। आखों में तीव्र जलन होती है। ऊपर पलकों में ऐसा लगता हैं किल जा रही है। उस समय आखों में आग ही आग नजर आती है।

साधक की आंख अत्यंत तेज हो जाती है। आंखों के किनारे ज्यादा खुलने लगते हैं, क्योंकि आंखों के किनारे चौड़े हो जाते हैं। तब साधक की आखें धूप में ,खोलने पर चकाचोंध सी होने लगती हैं। ऐसे साधक को दूसरे व्यक्ति से सीधे आंख मिलाकर बात नहीं करनी चाहिए। यदि उस समय साधक किसी व्यक्ति पर गहरी दृष्टि डालता हैं तो उस व्यक्ति के अंदर का सारा हाल जाना जा सकता है। की वह किस तरह का आदमी है।

क्या सोच रहा हैं ? यदि साधक अपने पर आ जाये तो दृष्टि मात्र से किसी भी व्यक्ति को नियंत्रित कर सकता है। यह क्रिया सिर्फ उग्र कुण्डलिनी वाले से होगी। भृकुटी से थोडा ऊपर की ओर पीछे की तरफ (अंदर की ओर) तीसरी आंख होती है। जिसे सिर्फ योगा या भक्त ही खोल पाता है। यह आंख इन चर्म चक्षुओं से बडी होती है।

देखने पर मस्तक पर खडे आकार में दिखायी पडती है। मगर अनुभव में साधक को यह आंख आडी भी दिखायी पडती है। यह आंख तेजस्वी दिखायी पडती है। जब आंख खुलती हैं तो साधक को लगता हैं एक आंख खडी या आडी आकार में हैं, वह धीरे-धीरे खुल रही है।

उसके अंदर प्रकाश ही प्रकाश भरा है। उससे प्रकाश बाहर आ रहा हैं। यह prakashrat बडा तीव्र व चमकीला होता है। इस नेत्र के खुलने से दिव्य-दृष्टि प्राप्त होती है। दिव्यदृष्टि के साथ-साथ दूरदृष्टि भी प्राप्त होती है जिससे साधक को सूक्ष्म से सूक्ष्म स्पष्ट दिखने लगता है। दिव्यदृष्टि व दूरदृष्टि से साधक अन्य लोगों को देख सकने में सामथ्र्यवान होता है।

ब्रह्म का सगुण रूप अर्थात ईष्वर का स्वरूप इसी दृष्टि से देखा जा सकता है। इस दृष्टि के क्रियाषील होने पर साधक को अत्यंत सर्वोच्च स्थिति के अनुभव होने लगते हैं। साधक ध्यानावस्था में जिस लोक में भ्रमण करता हैं, वहां का दृष्य अच्छी तरह से देख सकने या समझ सकने में सामथ्र्यवान होता है। साधक अपने कार्य के लिए भी या समझ सकने में सामथ्र्यवान होता है।

साधक अपने कार्य के लिए भी दिव्यदृष्टि से दूरदृष्टि का उपयुक्त लाभ उठा सकता है। भूतकाल व भविष्यकाल को बडे आराम से देख सकता है। दिव्यदृष्टि के बल पर आदिकाल के ऋषि-मुनियों व तपस्वियों से सम्बन्ध अपनी योग्यतानुसार स्थापित कर सकता है।

पहले के संत-महात्माओं के दर्शन करके उनसे मार्गदर्शन ले सकता है। वैसे भी बिना इच्छा के संतो के दर्शन व उनका मार्गदर्शन कभी-कभी मिलता रहता है। इस नेत्र के द्वारा साधक अपना पिछला जन्म देख सकता है। एक ही नहीं बल्कि योग्यतानुसार कई पिछले जन्म देखे जा सकते हैं।

यदि मैं अपनी बात लिखूं तो मुझे अपने पिछले कई जन्म दिखाई दिये। कुछ जन्मों के विषय में मैंने अपने अनुभवों में उल्लेख किया है। आप हमारे पिछले जन्मों के विषय में हमारे अनुभव पढकर जानकारी हासिल कर सकते हैं।

साधक अपना अगला जन्म भी देख सकता है तथा जन्म की घटनाएं भी दिखायी देती है। साधक दूसरे के विषय में भी देख सकता है। किसी भी व्यक्ति का पिछला जन्म देखना साधारण बात है। अब कोई भी व्यक्ति यह सवाल कर सकता हैं, पिछला जन्म कैसे जाना जा सकता है। मैं यहां पर संक्षेप में बताता हूं।

मनुष्य जो भी कर्म करता हैं उसके कर्माशय चित्त पर वृत्तियों के रूप में एकत्र होते रहते हैं। उसके चित्त में कर्माशय कई जन्मों के संचित रहते हैं। दिव्यदृष्टि के द्वारा चित्त में स्थित कर्माशयों को देखा जा सकता है। जिससे उसके द्वारा उसके द्वारा किया गया कर्म स्पष्ट दिखता है।

ऐसा समझो चित्त एक वीडियो कैमरा है। मनुष्य जो भी करता हैं या देखता हैं उसकी छाप चित्त पर पडती है। यही संस्कार कहे जाते हैं। इसी संस्कारों के अनुसार मनुष्य वर्तमान जीवन में भोग करता है।

साधक की दिव्यदृष्टि की क्षमता उसकी साधना के अनुसार होती है। जरूरी नहीं कि सभी साधक एक जैंसा देख पाने में सामथ्र्यवान हों। अगर साधक की साधना तीव्र, शुद्ध व पूरी तरह सात्विक है तो उसका तीसरा नेत्र कण्डचक्र खुलने के बाद ही खुल जाता है।

किसी का आज्ञाचक्र खुलने पर खुलता है। तीसरा नेत्र खुलने पर उसकी कार्यक्षमता तुरन्त ज्यादा नहीं होती है। जब कुण्डलिनी तीसरे नेत्र या भृकुटी पर पहुंचती हैं, उस समय यह नेत्र बहुत शक्तिशाली हो जाता है। कुण्डलिनी अपने तेज से इस नेत्र को तेजस्वी कर देती है।

उस समय दिव्यदृष्टि की कार्यक्षमता बहुत बढ जाती है। मंत्रजाप तीसरा नेत्र खोलने में बहुत सहायक होता है। इसलिए साधक को ज्यादा से ज्यादा जाप करना चाहिये। मैं तो यह कहूंगा योग में सबसे ज्यादा आनन्द तब आता हैं जब तीसरा नेत्र खुल जाता हैं उस समय उसे उच्चकोटी के अनुभव होते हैं।

तब लगता हैं कि मैं कितना शक्तिशाली हूं। लेकिन अभी उसे बहुत लंबा रास्ता तय करना है। साधक की इस अवस्था में समाधि लगती है। इस समाधि को सविकल्प समाधि कहते हैं। इस विषय में आगे लिखूंगा।

अब आती हैं साधक की साधना ब्रह्मरंध्र द्वार पर।

जब कुण्डलिनी सीधे मार्ग से ऊपर चढती हैं तो सीधा मार्ग भी खुल जाता है। सीधा मार्ग खुल जाने के बाद ब्रह्मरंध्र द्वार से या सिर के ऊपरी हिस्से से टपकता हुआ विशेष प्रकार का द्रव्य सीधे गले से होकर नाभि पर गिरता हैं। तब साधक की जठराग्नि शांत होने लगती है।

साधक ज्यादा भोजन न करके अल्प भोजन करता है। उसकी भूख भी अल्प रह जाती है। जब ऊपर से उस द्रव्य की बूंदें गले पर गिरती हैं, तो साधक उसके स्वाद का मजा लेता है। द्रव्य गाढा व रंगहीन होता है। उसका स्वाद शहद के समान मीठा होता है।

ऐसा लगता हैं जैंसे गले कें अंदर शहद लगा दिया गया हो। शहद का मीठापन कुछ समय बाद ख़त्म हो जाता है। मगर इस द्रव्य का मीठापन दिनभर नहीं जायेगा। उस समय लगता हैं कोई चटपटी चीज खायी जाये। मगर चटपटी वस्तु खाने से मीठापन नही जायेगा।

द्रव्य सदैव नहीं टपकता है। एक बार में दो-चार बूंदें गिरती हैं। जिसका स्वाद लेकर साधक को विशेष मजा आता है। योग की भाषा में इसे अमृत की बूंदें कहते हैं। कुछ दिनों के अंतर से फिर ये बूंदें गिरती है।

इस अवस्था में साधक जब ध्यान पर बैठता हैं तो ध्यानावस्था में सिर नीचे को दबाव मारता हैं।

इससे गर्दन पर दबाव पडता हैं। और गर्दन से नीचे का भाग ऊपर को दबाव मारता है। तो सिर का व शरीर का दबाव दोनों ओर से गर्दन पर पडता हैं, जिससे गर्दन बिल्कुल सिकुड जाती है। इसका कारण यह हैं कि सिर की वायु नीचे जाती हैं और नीचे शरीर की वायु ऊपर सिर में आती है।

कभी-कभी यह दबाव आपस में इतना हो जाता हैं कि सिर में हल्का-सा कंपन होने लगता है। उसी समय उड्डियान बंद लगता है तो कुण्डलिनी ऊपर जाने का प्रयास करती है। साधक की स्वांस उस समय बंद व गहरी हो जाती हैं।

आंतरिक कुम्भक व बाह्म कुम्भक लगता है। बाह्म कुम्भक इतने जोर से होता है। स्वांस वापस शरीर में आने का नाम ही नही लेता है। उस समय साधक के अंदर बैचेनी होती है। फिर थोडी देर में स्वांस वापस आती हैं तो साधक को राहत मिलती है।

मगर जैंसे ही स्वांस अंदर आता है तो बाहर जाने का नाम नहीं लेता है। आंतरिक कुम्भक बहुत जोर से लगता है। फिर कुछ समय बाद स्वांस बाहर निकल जाता है। ये भीतरी और बाह्म कुम्भक साधक को रोक नहीं सकता है।

क्योंकि यह क्रिया स्वयं कुण्डलिनी द्वारा की जाती है। इन कुम्भकों से कुण्डलिनी को ऊध्र्व होने में सहायता मिलती है।

गले से ब्रह्मरंध्र द्वार तक का मार्ग देखने में थोडा मालूम पडता हैं। मगर कुण्डलिनी को यह मार्ग तय करने में अथवा कण्ठचक्र से ब्रह्मचक्र तक का मार्ग प्रशस्त करने में बहुत समय लग जाता है। जब तक साधक पूर्ण रूप से ब्रह्मनिष्ठ नहीं होगा, तब तक अवरोध सा आता रहता है।

साधक के अंदर जो विकार आते हैं वह विकार नष्ट करने पडते हैं। इंद्रियां अत्यंत सूक्ष्म रूप में रह जाती है, अचेतन सी हो जाती है। इंद्रियां कभी भी नष्ट नहीं होती है। साधक ने जरा भी असावधानी की, तो ये इंद्रियां क्रिशाशील होने में देर नहीं लगाती है। इसलिए साधक को हमेशा सावधानी बरतनी चाहिये।

साधक को ध्यानावस्था में लाल रंग का आग का गोला दिखायी पडता है। यह गोला कभी-कभी साधक को अंतरिक्ष में चारों ओर घुमता नजर आता है। वास्तव में यह ब्रह्मरंध्र के अन्दर का दृष्य हैं जो इस रूप में दिखायी पडता है। कभी-कभी ध्यानावस्था में नाद भी सुनायी देता है। नाद हृदय से उत्पन्न होता है।

मगर आवाज सुनने का काम कर्ण ग्रंथियां करती है। इस अवस्था में कर्ण ग्रंथियां सूक्ष्म आवाज अच्छी तरह से सुन लेती हे। ऐसा लगता हैं नाद कानों में ही हो रहा हैं।

योग में दस तरह के नाद बताये गये हैं। कुछ नाद तो मैंने भी सुने है। इन नादों की आवाज बहुत मधुर होती है। आखिरी नाद मेघ गर्जना है। ऐसा लगता हैं बरसात के बादल भयंकर रूप से गरज रहे हों। इस नाद की उत्पत्ति वायुत्व और आकाशतत्व से होती है।

आकाश तत्व में वायुत्व समाया हुआ है। वायुतत्व का घर्षण आकाश में होता हैं, तब यह नाद उत्पन्न होता है। ऐसा लगता है बादल गरज रहे हैं। यह नाद ब्रह्मरंध्र द्वारा खुलने के पहले होता है। ब्रह्मरंध्र द्वार की संरचना बडी विचित्र है।

यह द्वार अत्यंत कठोर पर से बंद रहता है। इस द्वार को प्राणवायु नहीं खोल सकता है। इस द्वार को कुण्डलिनी धक्के मार-मार कर खोलती है। इस अवस्था में साधक की आंखे कभी-कभी (ध्यानावस्था में) अंदर की ओर दबाव मारती है।

यह दबाव इतना ज्यादा हाता हैं, ऐसा लगता हैं कि आंखे टुट कर सिर के पीछे की ओर चली जाएगी। साधक खूब जोर लगाए मगर आंखे खुल नही सकती है। उसी समय लगता हैं- आखों की रोशनी न चली जाए, मैं अंधा न हो जाऊं, मगर ऐसा नहीं होता है।

दिव्यदृष्टि प्राप्त होने पर साधक को एक बार ईष्वर का दर्शन होता है। किसी-किसी स्थान पर इसी सगुण ईष्वर को नीलमय पुरूष के शब्द से वर्णन मिलता है। ये भगवान शंकर होते हैं। इनके शरीर का रंग हल्के नीले रंग का होता है।

मैंने भी नीलमय पुरूष के रूप में भगवान शंकर का दर्षन किया है। भगवान शंकर के स्थान पर भगवान विष्णु या भगवान श्रीकृष्ण आदि के दर्शन हो सकते हैं, मगर नीले रंग के प्रकाष में नीले रंग का शरीर धारण किये होंगे।

अर्थात नीलमय पुरूष के दर्शन भिन्न-भिन्न रूपों में होता है। अब साधक की पहुंच सभी लोंकों में हो जाती है। कारण शरीर का रंग नीला होता है। यहीं से साधक कारण शरीर में प्रवेष करता है। जब साधक ध्यानावस्था में कारण शरीर में होता हैं, तो साधक का सबंध कारण, कारण जगत से हो जाता है।

कारण शरीर धारण करने वाली जीवात्माओं के दर्शन होते हैं। यहां पर सारे दर्शन चेतन्यमय होते हैं। कुण्डलिनी जब ब्रह्मरंध्र द्वार खोलने लगती हैं, तो साधक को महसूस होता है। कोई चीज ब्रह्मरंध्र द्वार पर चुभ रहीं हैं, क्योंकि कुण्डलिनी अपने मूंह से जोरदार धक्का मारती है। अंत में एक समय ब्रह्मरंध्र द्वार खोल देती हैं। इसका ज्यादा वर्णन कुण्डलिनी वाले पाठ में पढ लीजिएगा।

ब्रह्मरंध्र निर्गुण ब्रह्म का प्रवेष द्वार है। ब्रह्मरंध्र को सहस्त्रार चक्र नहीं कहते हैं। वास्तव में कुछ मार्गदर्शक यहां पर अज्ञानता में आ जाते हैं। वह यह समझते हैं कि यही ब्रह्मरंध्र ही सहस्त्रार चक्र है। सच यह हैं यह सहस्त्रार चक्र नहीं होता है। सहस्त्रार चक्र खुलने या विकसीत होने पर तो ब्रह्मज्ञान की प्राप्त होने लगती है जिसे हम तत्वज्ञान भी कह सकते हैं।

ब्रह्मज्ञान या तत्वज्ञान प्रकट होने पर मोक्ष प्राप्त होता है। सभी प्रकार के दुखों से निवृत्ति मिल जाती है। सच यह हैं ब्रह्मरंध्र द्वार तक अभ्यासी की साधना तन्मात्राओं के अंतर्गत चलती है। इन्हीं तन्मात्राओं के कारण उसे विभिन्न प्रकार के नाद सुनाई देते हैं।

तन्मात्राओं से आगे की अवस्था अहंकार के अंतर्गत आती है। इसीलिए ब्रह्मरंध्र द्वार खुलने पर फिर अभ्यास को नाद सुनाई नहीं पडते हैं। क्योंकि वह तन्मात्राओं से आगे की अवस्था में पहुंच जाता है। तन्मात्राओं के कारण यहां पर दसों नादों में आखिरी नाद मेघ गर्जना सुनाई दिया करती है।

कारण यह हैं कि आकाश तत्व में अधिष्ठित वायु तत्व में उसके अंदर जोरदार खिंचवा या घर्षण हुआ करता है। उस समय ध्वनि प्रकट होती हैं। ऐसा लगता हैं मानो मेघ गर्जना कर रहे हैं इसलिए इस ध्वनि को मेघनाद कहा गया है।

जब ब्रह्मरंध्र खुल जाता हैं, तो उसे विभिन्न प्रकार की अनुभूतियां व दृष्य दिखाई देते हैं। इसकी अनुभूति के लिए साधक को अपने गुरू के तन्मात्राओं में कठोर योग का अभ्यास करना होगा। वैंसे यहां पर जो साधक को जो अनुभूति होती हैं, उस अनुभूति को थोडा लिखने का प्रयास कर रहा हूं, क्योंकि अनुभूति लिखने का विषय नहीं होता हैं, सिर्फ महसूस की जाती है।

जब कुण्डलिनी ब्रह्मरंध्र खोलती हैं, तो साधक को मेघों की गर्जना सुनाई पडती हैं। बाद में जब कुण्डलिनी द्वार खोल देती हैं, तो द्वार पर रूका हुआ ब्रह्मरंध्र के अंदर प्रवेष कर जाता है। उस समय साधक कुछ समय के लिए चेतना शुन्य हो जाता है।

मेघगर्जना ब्रह्मरंध्र द्वार खुल जाने के बाद सदैव के लिए बंद हो जाती है। फिर निराकार अत्यंत तेजोमय ब्रह्म का अत्यंत सात्विक सशक्त वृत्ति के द्वारा दर्शन होता है। साधक को ध्यानावस्था जो आग का गोला चारों ओर घूमता हुआ अथवा स्थिर दिखाई पडता था। वह भी फटकर बिखर चुका होता है।

इसी फटने पर ब्रह्मरंध्र खुलता है। आग का गोला फटते ही अथवा ब्रह्मरंध्र द्वार खुलते ही ऐसा लगता हैं, जैसे करोडों सूर्य एक साथ फट पडे हों। चकाचोंध कर देने वाला प्रकाश दिखाई पडता है। उस समय दिव्यदृष्टि भी इस प्रकाष के तेज को सहन नहीं कर पातीं।

चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश होता है। स्वयं साधक कई-कई घंटे ध्यान में बैठा रहता है। उसे मालूम नहीं पडता हैं इतना समय कैसे बीत जाता है। शुरुआत में साधक का प्राण ब्रह्मरंध्र में बहुत समय नहीं रूकता है। जल्दी ही ब्रह्मरंध्र के नीचे उतर आता है।

धीरे-धीरे अभ्यास बढने पर प्राण ब्रह्मरंध्र के अंदर ज्यादा समय तक ठहरने लगता है। सच यह हैं कि ब्रह्मरंध्र द्वार खुलने पर जो अत्यंत तेजोमय प्रकाश दिखायी देता हैं मानो हजारों सूर्य फट पउे हों, वह वास्तव रूप में निर्गुण ब्रह्म नहीं होता है।

बल्कि अत्यंत सात्विक अशक्त अंहंकार की वृत्ति होती हैं, वह इस रूप में दिखाई देती है। ज्यादातर मार्गदर्शक व अभ्यासी यह समझ लेते हैं कि यह निर्गुण ब्रह्म का दर्शन हुआ है।  हां, यह सत्य हैं कि यह अत्यंत सात्विक सशक्त वृत्ति निर्गुण ब्रह्म की ओर से निर्देशन कर रही होती हैं, इसलिए इसका स्वरूप निर्गुण ब्रह्म के समान ही होता है।

इसी कारण ऐसी वृत्त्तियों के द्वारा ही अभ्यासी को समाधि अवस्था में यहां पर, ’अहं ब्रह्मासि’ जैसे शब्द सुनाई पडते हैं।

जब तक प्राण ब्रह्मरंध्र में रहता हैं, तब तक साधक की निर्विकल्प समाधि लगती है। संकल्प उठना बंद हो जाता है। बहिर्मन अंतर्मन में विलीन हो जाता है, इस अवस्था में द्वैतभाव विलीन हो जाता है, अद्वैतभाव आ जाता है। सारी वस्तुएं ब्रह्ममय लगने लगती हैं। अपने-पराये का भाव मिटने लगता है।

साधक को चौथी अवस्था (तुरीयावस्था) प्राप्त होती है। यहां पर दृष्टा, दृष्टि और दृष्य एक हो जाते हैं। जब तीनों एक हो जाते हैं, तो कौन किसे देखे, साधक स्वयं ब्रह्ममय हो जाता है। यह क्रिया इस प्रकार होती हैं- चित्त में तीनों गुणों का दो प्रकार का परिणाम होता रहता है।

पहले प्रकार का परिणाम चित्त को बनाने वाला होता है। दूसरे प्रकार का परिणाम चित्त पर स्थित वृत्तियों (कर्माषयों) पर होता है जिससे जीव को वृत्तियों के द्वारा संसार की अनुभूति होती है। इसे बाहरी परिणाम भी कहते हैं।

यह बाहरी परिणाम होना बंद हो जाता है। पहले सविकल्प समाधि में दृष्टा, दृष्टि और दृष्य की जो त्रिपुटी बनती थी वह अब यहां नहीं बनती है। सविकल्प समाधि में शब्द, अर्थ और ज्ञान का प्रवाह बहता रहता है। उसके कारण त्रिपुटी बनती है।

अब इस अवस्था में शब्द और ज्ञान का प्रवाह अर्थ रूपी प्रवाह में विलीन हो जाता है। सिर्फ अर्थ का प्रवाह ही बहता है। इस कारण अभ्यासी को समय और संसार का ज्ञान नहीं हो पाता है। ध्येय वस्तु सिर्फ अर्थ स्वरूप में ही रह जाता है। नाम (ंषब्द) और ज्ञान ये दोनों अर्थ में विलीन हो जाते हैं।

वृत्ति सिर्फ अर्थ स्वरूप में विद्यमान रहती है। इसीलिए साधक को निर्विकल्प समाधि के समय किसी प्रकार के दृष्य नहीं आते हैं और न ही कुछ याद रहता हैं, मगर  साधक के शेष संस्कारों के कारण समाधि भंग हो जाती है।

चित्त फिर अपने शेष कर्माषयों व तीनों गुणों के साथ अलग अस्तित्व में (आत्मा से बाहर आ जाता है) जाता है, फिर तीनों गुण अपना परिणाम शुरू कर देते हैं। इस अवस्था में हर एक साधक की समाधि का समय काफी अधिक हो जाता है।

मैं इस अवस्था में तीन घंटे से लेकर चार घंटे तक समाधि में बैठता था। साधकों, कुण्डलिनी बहुत समय तक ब्रह्मरंध्र में नहीं ठहरती है। समाधि का अभ्यास बढने पर कुण्डलिनी ब्रह्मरंध्र द्वार से आज्ञा चक्र पर आती हैं, तो आंखों में तीव्र गर्मी बढ जाती है।

ऐसा लगता हैं आंखें जल जांएगी फिर आज्ञा चक्र से कुण्डलिनी सीधे नीचे की ओर (पूर्वभाग से) आने लगती है और तालू पर आकर तालू काट डालती है। कुछ योगियों ने इस स्थान को (तालू को) एक चक्र माना है।

तालू को काट कर नीचे की ओर अपना नया मार्ग बनाने लगती है, फिर हृदय में आ जाती है।

जब कुण्डलिनी हृदय में आती हैं, उस समय कुण्डलिनी की लंबाई लगभग साधक कें शरीर की लंबाई के बराबर हो जाती है, क्योंकि कुण्डलिनी मूलाधार से ब्रह्मरंध्र तक, ब्रह्मरंध्र से आज्ञा चक्र होते हुए नीचे की ओर हृदय तक आ जाती है।

समाधि टूटने के बाद कुण्डलिनी मूलाधार में फिर आ जाती है। अब उसकी यात्रा बहुत लंबी हो जाती है। हृदय में आकर हृदय की वायु सोखने लगती हैं तथा कुछ मात्रा में कर्माशयों को भी जला देती है। समाधि का धीरे-धीरे अभ्यास बढने पर कुण्डलिनी स्थिर हो जाती है।

जब कुण्डलिनी स्थिर हो जाती हैं, तब मूलाधार में ध्यान के बाद वापस नहीं लौटती है, बल्कि पूरे मार्ग में उसका शरीर समाया रहता है। कुण्डलिनी का शरीर अग्नितत्व से बना होता है। स्थिर होने के बाद अग्नितत्व से वायुतत्व में परिवर्तित हो जाती है।

फिर कुण्डलिनी वायु रूप में साधक के शरीर में व्याप्त रहती है। कुण्डलिनी स्थिर होने के बाद हृदय में साधक को ज्योति का दर्शन होता है। वह समाधि अवस्था में देखता है कि हृदय के अंदर अत्यंत तेजस्वी ज्योति चल रही है। यह स्वयं साधक की अत्यंत सात्विक सशक्त वृत्ति होती है।

साधक को अभी भी बराबर समाधि का अभ्यास करना चाहिए क्योंकि अभी उसके शेष संस्कार बाकी हैं। ये शेष संस्कार भोगकर ही समाप्त होते हैं, योग के प्रभाव से ये जल नहीं सकते हैं। समाधि के द्वारा ये संस्कार धीरे-धीरे बाहर निकलते रहते हैं।

ये संस्कार क्लेषात्मक होते हैं, इनके कारण साधक को क्लेष भोगना ही पडता है। क्लेश संस्कार की समाप्ति पर भी योग करना जरूरी होता है क्योंकि तमोगुणी अहंकार को मूलस्त्रोत में विलीन करना होता हैं ताकि शुद्ध अहंकार रह जाये तथा चित्त का साक्षात्कार करना जरूरी है, ताकि फिर चित्त में फिर कर्माषय न बनें।

इस अवस्था में साधक को शुद्ध ज्ञान प्राप्त होता है। प्रकृति के विषय में जानकारी हो जाती है। फिर जीवात्मा प्रकृति के बंधन में नहीं बंधती है।

साधक इस अवस्था में बाहर से देखेन पर पहले जैसा दिखता हैं, मगर उसके अंदर विलक्षण शक्ति आ जाती हैं। अब ढेरों कार्य अपने योगबल पर कर सकता है। वह समाज का कल्याण कर सकता है, योग का मार्गदर्शन कर सकता हैं, योग के अभ्यास के प्रभाव से अपनी बात दूसरों को मनवा सकता है।

अब वह संसार में रहते हुए भी संसारी नहीं है। वह तो कमल के समान है। इंद्रियां उसके बस में रहती है। सदा सत्य और अहिंसा का आचरण करता है। योग के माध्यम से अन्य जीवधारियों से भी संपर्क कर सकता है।

दूसरे जीवधारियों की इच्छा समझ सकता है। अब वह मृत्यु के भय से दूर अपनी मृत्यु को कुछ समय के लिए टाल सकता है। ऐसे योगी भूलोक में जब अपने स्थूल शरीर को त्याग कर ऊपर के लोकों में जाते हैं तो उन्हें उच्चलोक में स्थान मिलता है और अनंत समय तक वहीं रहते है।

फिर योग प्रचार के लिए अपनी इच्छानुसार भूलोक पर वापस आते हैं। समाज का कल्याण करते हुए धर्म-प्रचार और योग का प्रचार करते हैं। फिर अपना कार्य करके वापस चले जाते हैं। साधकों, योग करने के लिए साधक को कई बातों का ध्यान रखना चाहिए।

यदि आप अच्छे साधक बनना चाहते हैं तो आप अपने जीवन मे योग के नियमों का पालन करिए तथा कुछ बातों का ध्यान रखिए जिससे आपका ध्यान अच्छा चलता रहे। अच्छे अभ्यास के लिए जरूरी है स्थूल शरीर तथा अपनी नाडियों को शुद्ध रखें।

इन सब बातों का ध्यान रखने के लिए साधक को ध्यान के अलावा कुछ और नियम अपने जीवन में शामिल कर लेने चाहिए। जैसे ब्रह्मचर्य, अहिंसा, मौन, परोपकार, दान, शुद्ध भोजन, आसन, प्राणायाम, त्राटक, मंत्र जाप, स्वाध्याय आदि के पालन से ध्यान अच्छा लगने लगता है। तथा शुद्धता बढती है।

Meditation in Hindi – इन सबका पालन करने से योग में प्रगति शीघ्र होती है। यदि साधक सिर्फ ध्यान ही करेगा और इन बातों का पालन नहीं करेगा, तो योग में अवरोध सा बना रहेगा। प्रगति शीघ्र संभव नहीं होगी।

ध्यान लगाने के तरीके -तो दोस्तों उम्मीद हैं आपको योगी आनंद जी के द्वारा बताये गए अपने अनुभव “meditation kaise kare & experience” और ध्यान के मार्ग में क्या-क्या होता है।

में एक बार ओर बता दू की योगी आनंद जी सिद्ध योगी है, उन्होंने योग अभ्यास के जरिये उच्च अवस्था प्राप्त कर रखी हैं। अब वह साधको का मार्गदर्शन करते हैं। अगर आप चाहते तो उनसे मार्गदर्शन ले सकते हैं।

2 Comments

  1. Amit May 21, 2017
  2. Tarveen Thakur June 4, 2017

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