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( vote)Eklavya Best story in Hindi
भारत के वैदिक युग में विद्यार्थी गुरु टीचर के घर में रहते थे। घर के सारे काम में वे गुरु की मदद करते थे। गुरु के मुख से शिक्षा ग्रहण कर गुरु के एक दास की तरह गुरु की सेवा करते थे।
गुरु की आज्ञा को ईश्वर की आज्ञा समझ कर पालन करते थे। क्योंकि अज्ञान के अंधेरे में ज्ञान का चिराग जलाने वाले प्रकाश ग्रह है गुरु। अज्ञान के समद्र में इधर-उधर बहने वाले मनरूपी नांव को ज्ञान के तट पर पहूंचाने वाले खेंवटिया है गुरु। इसलिए जितना भी गुरु की सेवा करें, पुजा करें अधिक नहीं होगी।
एक सच्चे गुरुभक्त को उदाहरण एकलव्य (Eklavya)। उसने आचार्य द्रोण के पास जाकर- मैं आपका शिष्य बनना चाहता हूं, लेकिन द्रोण ने उसे इनकार किया और कहा- मैं पाण्डवों के अलावा और किसी और को शिक्षा नहीं दूंगा।
गुरु भक्ति – एकलव्य की कहानी
एकलव्य निराश न होकर एक योद्धा बनने के दृढ होंसले के साथ अपने घर लोैटा। उन्होने आचार्य द्रोण का एक पुतला बनाया और उस पुतले के चरण स्पर्श करके अपने हाथ में शस्त्र लिया और यद्ध कला का प्रशिक्षण प्रारंभ किया। जब द्रोणाचार्य को सुचना मिली कि Eklavya Arjun से श्रेष्ठ योद्धा बन गया हैं वे उनसे मिलने गये, आचार्य द्रोण ने एकलव्य से पुछा- तुम्हारा गुरु कौन है?
उसने उत्तर दिया आचार्य द्रोण। आचार्य ने फिर से पुछा यह कैसे हो सकता है ? तब एकलव्य ने उस पुतले की कहानी बतायी तब आचार्य ने कहा- तुमने अब तक गुरु को गुरु दक्षिणा नहीं चढाई।
यह सुनकर ख़ुशी के साथ एकलव्य ने पुछा मैं आपके चरणों पर कौन-सी भेंट चढाउं ? तुम्हारे दायें हाथ का अंगुठा। द्रोण ने उत्तर दिया दायें हाथ का अंगुठा जाता हैं तो फिर से मैं तीर में बाण नहीं चला सकता।
एकलव्य अच्छी तरह जानते थे कि आचार्य के स्वार्थता की पूर्ति के लिए अंगुठा मांगा है। क्यांकि द्रोण ने अर्जून से वादा किया था कि संसार में अर्जुन से महान योद्धा उत्पन्न नहीं होंगे। अभी एकलव्य अर्जून से श्रेष्ठ बन गया और उसकों नीचे गिराना द्रोणाचार्य की आवश्यकता थी।
एकलव्य ने अपने गुरु की इच्छा अनुसार अपने दायें हाथ का अंगुठा काटकर गुरु के चरणों में समर्पित कर दिया। उन्होेन अपने गुरु के इरादे के बारे में पुछताछ नहीं की। असलियत में गुरु न होने के बावजूद भी मन में जिसे गुरु का स्थान देकर पूजा की उनकी स्वार्थ इच्छा की पूर्ति के लिए अपने करियर को भी नष्ट किया।
एक सच्चे गुरु प्रेमी हैं एकलव्य
यही हैं हमारे आर्य भारत के गुरु-शिष्य प्रेम की परंपरा। जब हम गुरू का आदर करते है। वहा ईश्वर की पूजा होती है। हर एक विद्यालय को गुरूकुल की पवित्रता को नष्ट किये बिना कायम रखना हर एक शिष्य का दायित्व होता है। शिक्षक दिवस के अवसर पर विषेश रूप से हम उन सब गुरुओं का आदर करते है, उन्हें भेंट चढाते है क्योंकि वे हमारे गुरु है।
इस श्रद्धा भक्ति के साथ हम हमेशा अपने गुरु के पास जाये। अगर आप पढाई में पीछे हो खेलकुद में कमजोर हो, अगर आपको गुरु का आशीर्वाद है तो आप जीवन मे जरूर सफल होगें। हर एक विद्यार्थी अपने जीवन में एकलव्य के गुरु भक्ति को अपनाये। आपके सारे जीवन मे गुरू का आशीर्वाद होगा। गुरु का प्रसाद होगा |