संत कबीर दास के दोहे इन हिंदी में : कबीर साहेब को आज कौन नहीं जानता, उनके चर्चे देश और दुनिया में होते है। वह एक कवी हृदय के इंसान थे, वह सत्य को गायन, कविता के रूप में कहते थे, आज भी उनके द्वारा लिखे गए गीत और कबीर वाणी दुनिया सुनती है। उनके दोहो में से कुछ ख़ास दोहे हम यहाँ आपके साथ शेयर कर रहे है। उम्मीद करते है आपको यह सभी बहुत पसंद आएंगे।
Kabir Ke Dohe in Hindi
संत कबीर दास जी के अर्थ सहित दोहे
धर्म किये धन ना घटे, नदी न घट्टे नीर।
अपनी आंखों देखिले, योन काठी कहहिं कबीर।
- धर्म (परोपकार, दान सेवा) करने से धन नहीं घटता, देखो नदी हमेशा बहती रहती है, लेकिन उसका पानी कभी नहीं घटता। धर्म करके स्वयं देख लो।
जैसा भोजन खाइये, तेरा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी बानी सोया।
- आहारशुद्धौ सत्वशुद्धि : जैसे खाय अन्न, वैसा बने मन, लोक प्रचलित कहावत है और मनुष्य जैसी संगती करके जैसे उपदेश पायेगा, वैसे ही स्वयं बात करेगा। इसलिए कबीर कहते है हमेशा अच्छी संगती करना चाहिए और मेहनत और ईमानदारी की कमाई खाना चाहिए।
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बार बार तोसों कहा, सुन रे मनुवा नीच।
बंजारे का बैल ज्यों, पैदा माहि मीच।
- है नीच मनुष्य! सुन, में बारम्बार तेरे से कहता हूं, जैसे व्यापारी का बैल बीच मार्ग में ही मर जाता है, वैसे तू भी अचानक एक दिन मर जायेगा। इस तरह कबीर स्पष्ट करना चाहते है की संसारी कामो में अत्यधिक न उलझकर सत्य और धर्म की और गति करनी चाहिए, नहीं तो एक दिन व्यापारी के बैल की तरह काम करते-करते रस्ते में ही दम तोड़ दोगे।
बनिजारे के बैल ज्यों, भरमि फिज्यो चहुंदेश।
खाद लादी भुस खात है, बिन सतगुरु उपदेश।
- सौदागरों के बैल जैसे पीठ पर शक्कर लाद कर भी भूसा कहते हुए चारों और फेरी करते है। इसी तरह यथार्थ सतगुरु के उपदेश बिना ज्ञान कहते हुए भी विषय प्रपंचों में उलझे हुए मनुष्य नष्ट होते है। कबीर शक्कर की बोरी से यह स्पष्ट करना चाहते है की मनुष्य अपने अंदर आनंद और मोक्ष को लिए हुए है और वह पत्नी में, अपने बच्चों में, धन संपत्ति में, पद प्रतिष्ठा आदि संसार में चारों और इन्हे मुर्ख की तरह खोज रहा है। अर्थात तेरा साय तुजमे खोज सके तो खोज।
जहां न जाको गुन लहे, तहाँ न ताकों ठांव।
धोबी बस के क्या करे, दिगंबर के गांव।
- जहां जिसका गुण नहीं लगता, वहां उसका रहना बेमतलब (निष्प्रयोगजन) है। दिगम्बरो (कपडे बिलकुल न पहनने वालों) के ग्राम (गांव) में धोबी बस कर क्या करेगा।
अजी हठ मत कर बावरे, हठ से बात न होय।
ज्यूँ-ज्यूँ भीजे कामरी, त्यूं-त्यूं भारी होय।
- हे पगले! अत्यंत हठ मत कर, अनिच्छित हठ करने से बात नहीं बनती जैसे कम्बल के भीग जाने से वह वजनदार होता जाता है, ठीक वैसे ही हठ करते-करते मनुष्य जड़ हो जाता है। अर्थात हर चीज में हठ करना सही नहीं होता।
मान अभिमान न कीजिये, कहें कबीर पुकार।
जो सिर साधू न नमें, सो सिर काटी उतार।
- कबीर साहेब पुकार कर कहते है, मान अभिमान मत करो अगर तुम्हारा सिर संतों के सामने नहीं झुकता, तो उसको काटकर फेंक दो (मद को दूर कर दो)। अर्थात जो सिर सत्य के आगे न झुके वह सिर काट कर फेंक देने बराबर है।
जो जल बांधे नाव में, घर में बाढ़े दाम।
दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानो काम।
- अगर नाव में जल भरने लगे, और घर में धन बढ़ने लगे, तो जल्द ही दोनों हाथों से उसे उलीचो, यही बुद्धिमानो का काम है, (अन्यथा दुब मरोगे)।
और देव नहीं चित बसे, मन गुरु चरण बसाय।
स्वल्पाहार भोजन करून तृष्णा दूर पराय।
- अन्य कल्पित देवी देवताओ की मन में कल्पना न रखे, अपने मन को गुरु के चरों में ही बसावे। अल्पाहारी, तृष्णा-त्यागी रहे।
जोन चाल संसार की, जो साधु को नाहीं।
डिंभ चाल करनी करे, साधु कहो मत ताहि।
- जो आचरण संसार का है, वह आचरण साधु का नहीं होता। जो अपने आचरण एवं करनी में दम्भ (बाहर कुछ, भीतर कुछ) रखता है, उसको कोई साधु मत कहो।
उड़गण और साधुकरा, बसत नीर के संग।
यों साधु संसार में, कबीर पडत न फंद।
- तारे एवं चन्द्रमा के प्रतिविम्ब पानी में रहते है, लेकिन मछलियों के साथ जाल में तारे-चंद्र नहीं फसते। इसी प्रकार संसार में रहते हुए भी साधू माया में नहीं फंसते।
कबीर मेरा कोई नहीं, हम काहू के नाही।
पारे पहुंची नाव ज्यों, मिली के बिछुरी जाहिं।
- न कोई मेरा है न हम किसी के है। जैसे नदी के पार नाव के पहुंच जाने पर मिले हुए सभी यात्री बिछुड़ जाते है, वैसे एक दिन सबसे बिछुड़ना हो जायेगा।
आज काल के लोग है, मिली के बिछुरी नाही।
लाहा कारण आपने, सौगंध राम की खाहिं।
- वर्तमान के जितने सगे मित्र है, सब एक दिन बिछुड़ जायेंगे, लेकिन अज्ञान वश दो दिन के क्षणिक जीवन में लोग अपने लोभ के लिए राम की सौगंध खाते है।
मांगन मरण समान है, तोहि दई में सिख।
कहें कबीर समझाय के, मति कोई मांग भीख।
- मांगना मरने के तुल्य है, गुरु कबीर समझाकर कहते है की में तुम्हे शिक्षा देता हूँ, कोई भिक्षा मत मांगों।
दाग जु लागा निल का, सौ मन साबुन धोय।
कोटि तक पहुंचा नहीं, रहा लोह का लोह।
- निल का दाग लग जाने पर, उसे सौ मन साबुन से धोने पर भी, वह नहीं छूटता। इसी प्रकार करोड़ों उपाय करने पर भी को हंस नहीं होता। भाव-अत्यंत मुर्ख का सुधरना कठिन है।
सज्जन सौं सज्जन मिले, होव दो-दो बात।
गधा सो गधा मिले, खावे दो-दो लात।
- सज्जन-सज्जन के परस्पर मिलने पर दो-दो अच्छी बाते होती है। लेकिन गधे-गधे के इकट्ठे होने पर, परस्पर दो-दो लात खाते है।
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जो छोड़ तो आंधरा, खाये तो मरीजाय।
ऐसे संग छछून्दरी, दोउ भांति पछिताय।
- पकडे हुए छछूंदर को अगर सांप छोड़ भी दे, तो छछूंदर अंधा हो जाए, और खा ले तो वह मर जाए। ठीक ऐसे ही कुसंगियों से प्रेम कर लेने के बाद उन्हें छोड़ने पर वे बेरी बन जायेंगे, और उनकी सांगत बनाये रखने पर, अपना पतन होगा। इस तरह कुसंगति करने से दोनों तरह से नुकसान होता है।
कबीर गरब न कीजिये, ऊँचा देखि आवास।
टेसू फुला दिवस दस, खंखर भला पलास।
- इस जवानी की आशा में पढ़कर अहंकार न करो। दस दिन के लिए फूलों से पलाश लड़ जाता है है, फिर फूल झड़ जाने पर वह उजाड़ जाता है, वैसे ही जवानी को समझो।
कबीर गर्ब न कीजिये, ऊँचा देखि आवास।
काल परों भुईँ लेटना, तो भी देवें गाड़।
- काम से लपेटे हुए अस्थि-पिंजर शरीर का मद न करो। उत्तम घोड़े की सवारी तथा राज्यछत्र के निचे गद्दीनशीन होने पर भी, एक दिन तुम्हारे शरीर को लोग भूमि में गाड़ देंगे।
यह थे kabir das ji ke dohe arth sahit in Hindi इनको ठीक से समझने के लिए एक गहरी सोच चाहिए होती, इसीलिए इनके गीतों को बहुत कम लोग ही समझ पाते है। इनके हर एक दोहे में कुछ ख़ास है, कुछ अदृश्य छुपा हुआ है और किसी ओर वह इशारा करता हुआ नजर आता है।