एक भक्त को कैसा होना चाहिए
मेरा मतलब यह नहीं है की हम परमात्मा के गुलाम हैं। वैसे तो एक अर्थ में हम उसके गुलाम ही हैं। क्योंकि यह दुनिया उसी की तो है, बस उसने हम पर गुलामी की जंजीरे नहीं पहना रखी हैं इतना ही फर्क हैं। उसने हमें आज़ाद छोड़ रखा है।
यह कहानी उन भक्तो के लिए हैं जो भक्ति में विश्वास करते हैं। यह उस समय की बात हैं जब राजा-महाराजा सेवा के लिए गुलाम ख़रीदा करते थे। एक बार राजा हजरत बलख अपने नगर के बाजार में निकलें, वहां उन्होंने बहुत से गुलाम देखिए फिर उन्होंने उनमें से एक गुलाम खरीदा।
और उसे राज-महल में ले आये राजा ने अपनी स्वाभाविक उदारता से गुलाम से पूछा तेरा नाम क्या है ?
जिस नाम से आप मुझे पुकारें ‘गुलाम का उत्तर था’।
तू क्या खायेगा ? जो आप खिलायें,
‘फिर उसने नम्रता से कहा’। तुझे कपडे कैसे पंसद है ? जो आप पहना दें ‘गुलाम का उत्तर पुनः वही था’।
तू क्या करेगा ? जो आप करायें, ‘गुलाम ने स्वाभाविक नम्रता से कहा’।
तू क्या चाहता हैं ? हुजूर गुलाम की अपनी चाह क्या।
हजरत बलख तख्त से उतर आये और उसे गले लगाकर बोले तुम मेरे उस्ताद हो। तुमने मुझे सिखा दिया कि प्रभु के सेवक को कैसा होना चाहिए। इस कहानी से हमें यह गहन शिक्षा मिलती हैं की हमें हमारे परमात्मा के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए।
यह संसार सब उसी का है और हम उसी की नगरी में रहकर अपना हुक्म चलाते हैं, कहते हैं ऐसा होना चाहिए था, यह गलत है, वह बुरा है, हम पर थोड़ा सा संकट आते ही हम भला-बुरा कहना शुरू कर देतें हैं। हमें भी परमात्मा के समक्ष नतमस्तक रहना चाहिए। एक भक्त को इस गुलाम की तरह होना चाहिए वही सच्चा भक्त होगा। शिकायत नहीं जो मिले, जो देदें वही स्वीकार है।