यह तो सच है की सृष्टि में ज्यों ही मनुष्य का जन्म हुआ, त्यों ही मनुष्य के साथ रोगों ने भी जन्म लिया। प्राचीनकाल में मनुष्य अपने रोगों, घावों का उपचार प्राकृतिक वनस्पतियों, जड़ी बूटियों से किया करता था। कभी-कभी तो अंधविश्वासी होने के कारन वह जादू टोने के द्वारा भी रोगों से मुक्ति के उपाय ढूंढा करते थे। भारतीय आयुर्वेद शास्त्र में ब्रम्हा को ज्ञान का ज्ञाता माना गया है। उन्होंने यह ज्ञान अश्विनी कुमारों को दिया।
इंद्र ने भी जो ज्ञान प्राप्त किया था, वह कई ऋषि मुनियों को दिया और फिर ऋषि मुनियों ने वह ज्ञान अपने शिष्यों को दिया। इस तरह भारतीय आयुर्वेद ज्ञान की पद्धति आगे बढ़ती गई। प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति का जो विकास हुआ, उसके जनक आचार्य “चरक” माने जाते है। वैसे चरक को कनिष्क के समकालीन माना गया है। ईसा की पहली शताब्दी में ही उन्होंने भारतीय आयुर्वेद शास्त्र, यानी “चरक संहिता” की रचना की।
चरक संहिता का महत्त्व
चरक संहिता आयुर्वेद शास्त्र का प्राचीनतम ग्रन्थ है। वस्तुत: यह ग्रन्थ ‘ऋषि अज्ञेय’ तथा ‘पुनर्वसु’ के ज्ञान का संग्रह है, जिसे आचार्य चरक ने कुछ संशोधित कर अपनी शैली में प्रस्तुत किया। कुछ लोग अग्निवेश को ही चरक कहते है। द्वापर युग में पैदा हुए ये अग्निवेश चरक ही है।
अलबरूनी ने लिखा है की -औषधि विज्ञान की हिन्दुओं की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक ‘चरक संहिता’ है। संस्कृत भाषा में लिखी गई इस पुस्तक को आठ स्थान तथा 120 अध्यायों में बांटा गया। सूत्र स्थान में आहार-विहार, पथ्य, अपथ्य शारीरिक तथा मानसिक रोगों की चिकित्सा का वर्णन है।
निदान स्थान में रोगों के करने को जानकर आठ प्रमुख रोगो की जानकारी है। विमान स्थान में स्वादिष्ट, रुचिकर, पौष्टिक भोजन का उल्लेख है। शरीर स्थान में मानव शरीर की रचना, गर्भ में बालक के विकास की प्रक्रिया तथा उसकी अवस्थाओं का महत्वा भी बताया गया है।
इन्द्रिय स्थान में रोगों की चिकित्सा पद्धति का वर्णन, चिकित्सा स्थान में कुछ विशेष रोगो के इलाज एवं कल्प तथा सिद्धि स्थान में कुछ सामान्य रोगों की जानकारी है। इनमे शल्य चिकित्सा पद्धति का उल्लेख नहीं मिलता।
चरक संहिता में मानव शरीर की 360 हड्डियों तथा नेत्र के 96 रोग बताये गए है। वात, पित्त, कफ तथा गर्भ में बालक के विकास की प्रक्रिया का अत्यंत प्रभावी सटीक वर्णन भी बताया गया है। चरक संहिता में वैध के लिए कुछ आचार संहिता तथा नैतिक करवाया के पालन हेतु कुछ सिद्धांत दिए गए है, जिसकी शपथ उपचार करने वाले को लेनी होती है।
कीर्ति लाभ के साथ-साथ जीवमात्र के प्रति स्वस्थ्य लाभ की कामना बिना किसी राग द्वेष के साथ-साथ रोगी तथा उसके रोग के बारे में चर्चा गुप्ता रखने की बात कही गई है। नीम हकीम खतरा ऐ जान की आशंका से भी सचेत रहने को कहा है।
चरक संहिता के आधार पर यह कहा जा सकता है की भारतीय चिकित्सा पद्धति यूनानियों से भी कही गुना श्रेष्ठ थी।
यह निसंदेह कहा जा सकता है की आचार्य चरक ने प्राचीन समय में चिकित्सा के क्षेत्र में रोग तथा रोगों की पहचान से लेकर उसकी उपचार पद्धति के सम्बन्ध में काफी कुछ स्वास्थ्यवर्धक जानकारिया दी है। उनकी आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति का महत्त्व देश में ही नहीं, तत्कालीन समय में विदेशों में भी था। कुछ सीमाओं के होते हुए भी चरक की भारतीय चिकित्सा के क्षेत्र में अमूल्य दें थी। वे ही आयुर्वेद के जनक थे।
Mera Bharat Mahan
Satya Sanatan Dharm is Great.