Hunter And Deer Story in Hindi
बात उस समय की हैं जब राजा-महाराजा निरिह पशुओ की हत्या को अपना धर्म मानते थे और शिकार खेलना उनका प्रिय शौक होता था। उस समय जयपुर महाराज के दिवान अमरचन्द्र जैन बडे धर्मात्मा दयालु और ज्ञानी थे।
एक बार महाराज शिकार के लिए जाने लगे तो दिवान जी को भी साथ ले गये। जंगल में हिरणों का एक झुण्ड देख महाराज ने अपना घोडा उनके पीछे लगा दिया।
आगे-आगे विहल हिरण और पीछे-पीेछे महाराज का घोडा ऐसा दृष्य देख दीवानजी सोच रहे थे, क्या बिगाडा हैं इन निरिह पशुओ ने मनुष्य का जो इन्हें जब तक अकारण मारने को उतारू रहता हैं । यह बेचारे पशु भागकर कहां जायेंगे जब राजा ही इनके प्राण लेने को आतुर हो। तो यह अपने प्राण कैंसे बचाएंगे ।
अचानक दिवानजी के अंतर भाव ‘वाणी’ बनकर फूट पडे। ‘हिरणों मैं कहता हूं जहां हो वही रूक जाओं’ जब रक्षक ही भक्षक हो जाये तो बचकर कहां जाआोंगे ? वाणी नहीं निकली मानों कोई सम्मोहन मंत्र निकला हो, हिरण जहां थे वहीं खडे रह गये।
दिवानजी आगें बढ़कर करूण से विहल स्वर में बोले – महाराज ये खडे आपके सामने सारे हिरण इन्होंने आपका क्या बिगाडा है ? पर आप इन्हें मारना ही चाहते हैं तो जितने चाहे मार लो।
महाराज कभी दिवानजी को देखते कभी हिरणों को जो कुछ देखा वैसा तो जीवन में कभी नहीं देखा था। अदभूत दृष्य था। महाराज के हृदय से एक हिलोर सी उठी, बोले- दीवान जी तुमने मेरी आंखे खोल दी आज से मैं शिकार का त्याग करता हूं।
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